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________________ भारतीय दर्शन परम्परा में जैन धर्म-दर्शन का स्थान 309 सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टाः एकोभावः सर्वथा तेन दृष्टः। अर्थात् जिसने एक वस्तु का सर्वथा ज्ञान संपादन कर लिया उसने समग्र वस्तुओं के सर्वथा ज्ञान को प्राप्त कर लिया तथा समग्र वस्तुओं के सर्वथा अनुभव कर्ता को एक वस्तु का सर्वथा अनुभव हो जाता है। नानात्मक सत्ता की तात्विक आलोचना स्याद्वाद के सिद्धांत को मान कर ही की जाती सकती है। ____ आचार मीमांसा जैन दर्शन का एक महत्वपूर्ण अंग है। जैन मत आरंभ में धर्मरूप में उदित हुआ था। क्रमबद्ध दर्शन का रूप उसे अवांतर शतकों में प्राप्त हुआ। इसलिये विद्धज्जन आस्रव तथा संवर के मोक्षोपयोगी तत्वों का प्रतिपादन ही जैन दर्शन का प्रधान विषय मानते हैं। आम्रवोभवहेतुः स्यात् संवरो मोक्षकारणं इतीयहिति दृष्टिरन्यदस्याह प्रपत्रचनम्। अर्हत की देवत्व कल्पना मनुष्यों के आर्त हृदय को आश्वासन देने के लिये संजीवनी औषधि का काम करती है। परंतु इससे बढ़कर इस दर्शन का जीव के नैसर्गिक अनन्त सामर्थ्य तथा अनंत सौख्य में गंभीर विश्वास। यह दर्शन मनुष्य मात्र के लिये आशा का संदेश तथा स्वावलंबन की श्लाघनीय शिक्षा देता है। इस विषय में यह धर्म उपनिषद् प्रतिपादित आध्यात्मिक परंपरा का अधिकारी है। यह कथन ऐतिहासिक तथा तात्विक दोनों ही दृष्टियों से समीचीन प्रतीत होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012067
Book TitleSumati Jnana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivkant Dwivedi, Navneet Jain
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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