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________________ भारतीय दर्शन परम्परा में जैन धर्म-दर्शन का स्थान ४२ Jain Education International हमारा यह पुण्य पवित्र भारत देश जितना प्राकृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण एवं रमणीय है उतना ही ज्ञान-विज्ञान की दृष्टि से परिपूर्ण एवं समृद्ध है। इस पृथिवी पर सभ्यता एवं संस्कृति का उदय सर्वप्रथम भारतवर्ष में ही हुआ । अन्य देश जिस समय बर्बरता और पाशविक प्रवृत्ति का जीवन व्यतीत कर रहे थे उस समय इस देश में ज्ञान सूर्य की प्रकाशमान किरणों ने अविद्या के तिमिर को ध्वस्त कर दिया था । इस देश में ब्राहमणों के चरित्र को देखकर ही संपूर्ण पृथिवी के लोगों ने अपने-अपने चरित्र का विकास किया था। भारतवर्ष की पहचान संपूर्ण संसार में अध्यात्म विद्या को जानने वाले देश के रूप में की जाती है। संभवतः ऐसा ही कुछ कारण है कि स्वर्गस्थ देवता भी इस देश में जन्म लेने के लिये सदा लालायित रहते हैं। अपनी ज्ञान-पिपासा का शमन करने के लिये ही यहां ब्रहमा-विष्णु-महेश जैसे त्रिदेवों ने समय-समय पर मानवरूप में अवतार लिया है एवं यहां के तपस्वियों से, ऋषियों से अध्यात्मविद्या के दिव्य ज्ञान को आत्मसात किया है । अध्यात्म विद्या की एक धारा का नाम है 'दर्शन' । क्षेत्रविशेष के आधार पर भारतीय दर्शन एवं पाश्चात्य दर्शन इस प्रकार का स्थूल विभाजन किया जा सकता है। भारतीय दर्शन भी दो धाराओं में प्रवाहित होता है। एक धारा नास्तिक दर्शन के रूप में तो दूसरी आस्तिक दर्शन के रूप में प्रवाहित हो रही है। यहां आस्तिक और नास्तिक से तात्पर्य वेद प्रामाण्य से लिया जाता है। वेदों को प्रमाण के रूप स्वीकार करने वाली धारा आस्तिक दर्शन और वेदों को प्रमाण के रूप में न मानने वाली धारा नास्तिक दर्शन के रूप में मानी जाती है। यद्यपि दोनों ही धाराओं को अंतिम लक्ष्य मानव मात्र का कल्याण ही है। नास्तिक दर्शन की धारा में चार्वाक, जैन और बौद्ध इन तीन दर्शनों का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। इन तीनों दर्शनों में से भारत में लोकप्रिय एवं व्यापक जैन दर्शन ही है । यह दर्शन अपने कतिपय सिद्धान्तों के कारण चर्चा का केन्द्र बिन्दु भी रहा है किन्तु भारतीय दर्शन परम्परा में इस दर्शन का अपना विशिष्ट स्थान है। यह दर्शन अपनी आचार मीमांसा सप्तभंगी नय, द्रव्यवाद, स्यादवाद आदि के कारण विशेष रूप जाना जाता है। आचार मीमांसा के अंतर्गत रत्नत्रय का विषय दार्शनिकों में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान रखता है। जैन दर्शन ने द्रव्य का विभाजन स्थूल रूप में दो प्रकार से किया है। बहुप्रदेश व्यापी द्रव्य को ही जैन दर्शन में अस्तिकाय के रूप में जाना जाता है। इसी विभाजन का विस्तार संपूर्ण चराचर जगत के रूप में जैन दर्शन में स्वीकार किया है। जैन दर्शन में विस्तार धारण करने वाले द्रव्य आस्तिकाय के रूप में जाने जाते हैं। सत्ता धारण करने के कारण वे अस्ति तथा शरीर की भांति विस्तारक रूप में समन्वित होने के कारण काय कहे जाते हैं, यथा For Private & Personal Use Only डॉ. गोविन्द गन्धे www.jainelibrary.org
SR No.012067
Book TitleSumati Jnana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivkant Dwivedi, Navneet Jain
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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