SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन आचार में इन्द्रिय-दमन की मनोवैज्ञानिकता डा० रतनचन्द जैन प्राय: सभी भारतीय मुक्तिमार्गों में मुक्ति के लिए वीतरागता है। किन्तु विषयराग बना रहने के कारण यह निर्वाह प्राय: दमन के या निष्कामभाव एकमात्र साधन माना गया है, क्योंकि बन्धन और द्वारा किया जाता है। संसार भ्रमण का मूल कारण है-रागद्वेष-मोह से ग्रस्त होना। रागद्वेष दमन के दुष्परिणाम- दमन से निष्कामता या वीतरागता नाना प्रकार की इच्छाओं के रूप में प्रकट होते हैं जिनकी सन्तुष्टि के नहीं आती, अपितु चरित्र में विकृति उत्पन्न होती है। आधुनिक युग लिए व्यक्ति तरह-तरह के शुभाशुभ कर्म करता है और उनसे नवीन के प्रसिद्ध मनोविश्लेषक फ्रायड ने दमन की कटु आलोचना की है। कर्मों का बन्ध कर अनन्तकाल तक संसारचक्र में भटकता रहता है। उसने इसे सभ्य समाज का सबसे बड़ा अभिशाप बतलाया है और 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' में पं० टोडरमल जी ने कहा है- “निश्चय से कहा है कि सभ्य संसार की जितनी भी विकृतियाँ हैं, जितनी भी वीतरागभाव ही मोक्षमार्ग है।" वीतरागता का लक्षण है- समस्त मानसिक और शारीरिक बीमारियाँ हैं, जितनी हत्याएँ और आत्महत्याएँ शुभाशुभ इच्छाओं की निवृत्ति। इसी दशा में आत्मा का भाव शुद्ध होती हैं, जितने लोग पागत होते हैं, जितने पाखण्डी बनते हैं, उनमें अर्थात् वीतराग होता है और उससे नवीन कर्मों का आस्रव रुकता अधिकांश का कारण इच्छाओं का कारण है। इच्छाओं के दमन से है तथा पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा होती है, जिससे क्रमश: मोक्ष व्यक्तित्व अन्तर्द्वन्द्व से ग्रस्त हो जाता है। प्राकृतिक मन और नैतिक प्रतिफलित होता है। इस इच्छानिवृत्तिरूप वीतरागभाव को ही तप मन में संघर्ष छिड़ जाता है। प्राकृतिक मन भोग की इच्छा उत्पन्न कहा गया है। भगवान् बुद्ध ने भी कहा है, "छेत्त्वा रागञ्च दोहञ्च करता है, नैतिक मन उसे दबाने का प्रयत्न करता है। इस संघर्ष में ततो निब्बानमेहिसि।" तथा "तण्हक्खयो सब्बदुक्खं जिनाति।" इच्छाएँ दब जाती हैं, पर नष्ट नहीं होती। वे गूढ़ (अचेतन) मन की गीता में जब अर्जुन भगवान् कृष्ण से पूछते हैं- "हे वाष्र्णेय, वह गहराइयों में चली जाती हैं और गाँठ बनकर बैठ जाती हैं। ये गाँठे कौनसा तत्त्व है जिससे प्रेरित होकर पुरुष न चाहता हुआ भी पाप में चरित्र में विकृति उत्पन्न करती हैं, मनुष्य को रूग्ण, विक्षिप्त, छद्मी प्रवृत्त होता है?" तब भगवान् उत्तर देते हैं, “रजोगुण से उत्पन्न यह या भ्रष्ट बना देती हैं। इच्छाओं के दमन का परिणाम हर हालत में काम ही वह तत्त्व है जो मनुष्य को पाप में प्रवृत्त करता है। इसे ही विनाशकारी है। इसलिए फ्रायड ने दमन का पूरी तरह निषेध किया तू सबसे बड़ा वैरी समझा६" वे आगे कहते हैं, “गतागतं कामकामा है और उन्मुक्त कामभोग की सलाह दी है। लभन्ते," इच्छाग्रस्त जीव संसार में भ्रमण करते हैं और आत्मरमण फ्रायड के पूर्व पं० टोडरमल- भारतीय मुक्तिमार्गों में भी या वीतरागता निर्वाण का हेतु है। दमन को निरर्थक और हानिकारक बतलाया गया है। फ्रायड से एक इस प्रकार मुक्ति की सारी साधना इच्छाओं के विसर्जन सौ बीस वर्ष पहले जन्मे जैन विद्वान् पं० टोडरमल जी ने दमन के की साधना है। इच्छाएँ दो प्रकार की होती हैं-इन्द्रिय विषय- दुष्परिणामों का बिल्कुल वैसा ही वर्णन किया है जैसा फ्रायड ने। सम्बन्धी और मानस विषय-सम्बन्धी। ऐन्द्रियक विषय तो प्रसिद्ध 'मोक्षमार्गप्रकाशक' के सप्तम अधिकार में वे कहते हैं, "कितने ही ही हैं। मानसिक विषय हैं-यश, प्रतिष्ठा, प्रभुत्व, ऐश्वर्य आदि। जीव पहले तो बड़ी प्रतिज्ञा धारण कर बैठते हैं, परन्तु अन्तरंग में ये मोह, तृष्णा, अहंकार आदि कषायों से प्रसूत होते हैं। जैन विषय-कषाय-वासना मिटी नहीं है इसलिए जैसे-तैसे प्रतिज्ञा पूरी अध्यात्म में प्रथम को विषयजन्य इच्छाएँ और द्वितीय को कषायजन्य करना चाहते हैं। वहाँ उस प्रतिज्ञा के परिणाम (मनोभाव) दु:खी होते इच्छाएँ कहते हैं। हैं। जैसे कोई बहुत उपवास कर बैठता है और पश्चात् पीड़ा से दुःखी इच्छाओं का दमन- इच्छाओं से मुक्ति का एकमात्र उपाय हुआ रोगी की भाँति काल गँवाता है।... दु:खी होने में आर्तध्यान हो, वैराग्य है और वैराग्य का हेतु है- ज्ञान या सम्यग्दर्शन। पर प्रायः उसका फल अच्छा कैसे लगेगा?" गृहस्थजीवन में और किसी हद तक संन्यास-जीवन में बलपूर्वक "अथवा उस प्रतिज्ञा का दुःख नहीं सहा जाता तब उसके इच्छाओं का दमन किया जाता है। दोनों ही जीवन-धर्मसाधना के बदले विषय-पोषण के लिए अन्य उपाय करता है। जैसे (प्यास) लगे क्षेत्र हैं और धार्मिक व्रत जब स्वीकार कर लिये जाते हैं तब उन्हें तब पानी तो न पिये और अन्य शीतल उपचार अनेक प्रकार करे, व निभाना अनिवार्य हो जाता है। कुछ धार्मिक आचार कुल और घृत तो छोड़े और अन्य स्निग्ध वस्तु का उपाय करके भक्षण करे।" समाज-परम्परा से आरोपित होते हैं जिनका निर्वाह अपरिहार्य होता "अथवा प्रतिज्ञा में दुःख हो तब परिणाम लगाने के लिए Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy