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________________ जैन आचार में इन्द्रिय-दमन की मनोवैज्ञानिकता १५ कोई आलम्बन विचारता है। जैसे उपवास करके फिर क्रीड़ा करता है, शुद्धि न हो तो केवल शरीर को क्षीण करना व्यर्थ है१५। विषयकितने ही पापी जुआ आदि कुव्यसनों में लग जाते हैं अथवा सो कषायों में चित्त का लिप्त न होना ही वास्तविक संयम है१६।। रहना चाहते हैं। ऐसा जानते हैं कि किसी प्रकार काल पूरा करना।" उन्मुक्त भोग दमन का विकल्प नहीं- किन्तु इच्छा-दमन के "अथवा कितने ही पापी ऐसे भी हैं कि पहले प्रतिज्ञा करते हानिकारक परिणामों से बचने के लिए फ्रायड ने जो उन्मुक्त भोग का हैं बाद में उससे दुःखी हों तब प्रतिज्ञा छोड़ देते हैं।" उपाय बतलाया है वह भारतीय आचार में अंगीकृत नहीं किया गया, “तथा जिनके अन्तरंग विरक्तता नहीं हुई और बाह्य प्रतिज्ञा क्योंकि यह तो उस औषधि के समान है जो रोगी को एक साधारण धारण करते हैं वे प्रतिज्ञा के पहले और बाद में जिसकी प्रतिज्ञा करें रोग से बचाने के लिए उससे भी भंयकर रोग से ग्रस्त कर दे। उसमें अति आसक्त होकर लगते हैं। जैसे उपवास के धारणे-पारणे के इच्छाओं का दमन जितना हानिकारक है उससे भी कहीं ज्यादा घातक भोजन में अतिलोभी होकर गरिष्ठादि भोजन करते हैं, शीघ्रता बहुत उन्मुक्त भोग है। इसके लोमहर्षक परिणाम हम अमेरिका जैसे स्वच्छन्द करते हैं। जैसे जल को रोक रखा था, जब वह छूटा तभी प्रवाह भोगी देशों में दिनोंदिन बढ़ती हुई विक्षिप्तता और आत्महत्याओं के चलने लगा। उसी प्रकार प्रतिज्ञा पूर्ण होते ही अत्यन्त विषय प्रवृत्ति रूप में देख रहे हैं। होने लगी। सो प्रतिज्ञा के काल में विषय वासना मिटी नहीं, आगेपीछे उसके बदले अधिक राग किया, सो फल तो रागभाव मिटने से विषय-विराग ही एकमात्र उपाय होगा। इसलिए जितनी विरक्ति हुई हो उतनी ही प्रतिज्ञा करना।” (पृ० भारतीय आचार-पद्धतियों में इच्छाओं से मुक्ति के लिए २३८-२४०) उनके दमन के बजाय विषय-विराग की आवश्यकता प्रतिपादित की ___ इन शब्दों में पंडित जी ने जैसे-तैसे प्रतिज्ञा पूरी करने के गई है। इच्छाओं का कारण विषयों के प्रति राग है।१७ अत: उनसे दुष्परिणामों का उल्लेख किया है। जैसे-तैसे का अर्थ है अन्तरंग में वैराग्य ही इच्छाओं की समाप्ति का वैज्ञानिक उपाय है। स्वामीकुमार उठती हुई विषयेच्छा का येन केन प्रकारेण दमन करके। और, इसके ने कहा है। दुष्परिणाम उन्होंने प्रमुखत: पाँच बतलाये हैं- (१) आर्तध्यान या जो पुण विसयविरत्तो अप्पाणं सव्वदो विसंवरइ। तनाव उत्पन्न होना (२) प्रकारान्तर से इच्छातृप्ति की चेष्टा करना, मणहरविसएहितो तस्स फुडं संवरो होदि१८।। (३) कष्ट को भुलाने के लिए व्यसनों में चित्त लगाना (४) प्रतिज्ञा से जो मुनि विषयों से विरक्त होकर, मन को हरने वाले च्युत हो जाना (५) आसक्ति का और बढ़ जाना। इन्द्रिय-विषयों से अपने को सदा दूर रखता है उसी के निश्चय से इन दुष्परिणामों से बचने के लिए उन्होंने कहा है कि फल संवर होता है। तात्पर्य यह कि विषय-विरक्ति से ही आत्मा को इन्द्रिय तो रागभाव मिटने से लगता है, इसलिए जितनी विरक्ति हुई हो विषयों में प्रवृत्त होने की इच्छा दूर हो सकती है। इसलिए पं० उतनी प्रतिज्ञा करनी चाहिए। टोडरमल जी ने कहा है-जितनी विरक्ति हुई हो उतनी ही प्रतिज्ञा अन्तरंग विरक्ति ही कार्यकारी-जैन आचार में अन्तरग करना। विरक्ति को कार्यकारी कहा है, बाह्य विरक्ति अर्थात् इन्द्रिय निरोधमात्र को निष्फल बतलाया है। इन्द्रिय होने पर भी अन्तरंग विरक्ति के चंचल और दुर्निग्रह मन अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है१९॥ अभाव में मनरूपी हाथी विषयवन में क्रीडा करता रहता है वैराग्य का उपाय ज्ञान- विषयराग अज्ञान या मोहजन्य भावविरदो दु विरदो ण दव्वविरदस्स सुगई होई । है। अज्ञान के कारण इन्द्रिय और मन के विषय मनुष्य को सुखद और विसयवणरमणलीलो धरियव्यो तेण मणहत्थी ११।। सार प्रतीत होते हैं। अत: वह उनके प्रति आकृष्ट होता है। इसलिए गीता में भी कहा गया है कि दमन से इन्द्रियाँ तो विषयों वैराग्य का उपाय ज्ञान या सम्यग्दर्शन है। ज्ञान से विषयों की से निवृत्त हो जाती हैं, किन्तु इन्द्रिय-विषयों के प्रति मन का राग असारता और दुःखदता का बोध हो जाता है। तब उनके प्रति रहने समाप्त नहीं होता। वह उन्ही में डूबा रहता है। वाला राग स्वयमेव निवृत्त हो जाता है। आचार्य गुणभद्र 'आत्मानुशासन' वहीं आगे कहा गया है में कहते हैं- "जैसे बीज से मूल और अंकुर उत्पन्न होते हैं वैसे ही कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् । मोहरूपी बीज से राग और द्वेष पैदा होते हैं। इनका दहन ज्ञानाग्नि से इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मायाचारः स उच्यते१३।। होता है।२०" भगवान् कुन्दकुन्द ने 'भावप्राभृत' मे कहा है- “विषयरूप जो मूढ़ात्मा इन्द्रियों का दमन कर मन ही मन विषयों का विषपुष्पों से खिली हुई मोहलता को ज्ञानीजन ज्ञानरूपी शस्त्र से चिन्तन करती रहती है उसका यह आचरण मायाचार है। उच्छिन्न करते हैं । मन शुद्धि के अभाव में संयम नहीं हो सकता। मन इच्छा के अभाव में दमन का प्रश्न नहीं-भीतर इच्छा Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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