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________________ अध्यात्मवाद : एक अध्ययन खण्डन कर आत्मा की संसिद्धि की है विस्तार भय से वह सारी चर्चा यहाँ नहीं की जा रही है। पाठकों को मूल ग्रन्थ देखना चाहिये। जैन आगम साहित्य में भी यथा प्रसंग नास्तिक दर्शन का उल्लेख कर उसका निराकरण किया गया है सूत्रकृतान में अन्य मतों का निर्देश करते हुए नास्तिकों के सम्बन्ध में कहा है- कुछ लोग कहते हैं- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश ये पाँच महाभूत हैं। इन पाँच महाभूतों के योग से आत्मा उत्पन्न होती है और इनके विनाश व वियोग से आत्मा भी नष्ट हो जाती है । आचार्य शीलाङ्क ने प्रस्तुत गाथाओं की वृत्ति में लिखा हैभूतसमुदाय काठिन्य आदि धर्मों वाले हैं। उनका गुण चैतन्य नहीं है। पृथक्-पृथक् गुण वाले पदार्थों के समुदाय से किसी अपूर्व गुण वाले पदार्थ की निष्पत्ति नहीं होती, वैसे ही चैतन्य गुण वाली आत्मा की जड़त्व धर्म वाले भूतों से उत्पत्ति होना सम्भव नहीं भिन्न गुण वाले पाँच भूतों के संयोग से चेतना गुण की निष्पत्ति नहीं होती। यह प्रत्यक्ष है कि पाँचों इन्द्रियों अपने-अपने विषय का ही परिज्ञान करती हैं। एक इन्द्रिय द्वारा जाने हुए विषय को दूसरी इन्द्रिय नहीं जानती, किन्तु पाँचों इन्द्रियों के जाने हुए विषय को समष्टि रूप से अनुभूति कराने वाला द्रव्य कोई भिन्न ही होना चाहिए और उसे ही आत्मा कहते हैं। बौद्ध दृष्टि महात्मा बुद्ध ने सांसारिक विषयासक्ति से दूर रहकर आत्मगवेषणा और आत्म-शान्ति का उपदेश दिया है। उन्होंने कहाआत्म- दीप होकर बिहार करो, आत्म-शरण, अनन्यशरण ही रहो 'अत्तदीपा विहरथ, अत्तसरणा अनञ्ञसरण उनकी दृष्टि से जो । निर्मोही है वही अक्षय आध्यात्मिक आनन्द का अधिकारी है और वह सुख बिना काम सुख त्यागे प्राप्त नहीं हो सकता। काम-सुख हीन और अनार्य है। जब तक उसका परित्याग नहीं किया जाता, उस पर विजय प्राप्त नहीं की जाती, तब तक आध्यात्मिक आनन्द का अनुभव नहीं होता । आध्यात्मिक सुखानुभूति होने के पश्चात् पुनः प्राणी किसी सांसारिक सुख तृष्णा में नहीं पड़ सकता। यह आध्यात्मिक सुख सम्राटों के और देवताओं के सुख से बढ़कर है। आत्मशरण की प्रबल प्रेरणा देने पर भी बौद्ध दर्शन आत्मा के सम्बन्ध में एक निराली दृष्टि रखता है। वह किसी दृष्टि से आत्मवादी है और किसी दृष्टि से अनात्मवादी भी हैं एक ओर पुण्य पाप, पुनर्जन्म, कर्म, स्वर्ग, नरक, मोक्ष के स्वीकारने के कारण आत्मवादी है, तो दूसरी और आत्मा के अस्तित्व को सत्य नहीं किन्तु काल्पनिक संज्ञा मानने के कारण आनात्मवादी है। Jain Education International महात्मा बुद्ध का मन्तव्य था कि जन्म, जरा, मरण आदि किसी स्थायी ध्रुव जीव के नहीं होते, किन्तु वे सभी विशिष्ट कारणों से समुत्पन्न होते हैं, अर्थात् जन्म, जरा, मरण इन सबका अस्तित्व तो है, किन्तु उसका स्थायी आधार वे स्वीकार नहीं करते जहाँ उन्हें । चार्वाक का देहात्मबाद स्वीकार नहीं है वहाँ उपनिषद् का शाश्वत आत्म-स्वरूप भी अमान्य है। उनके मन्तव्यानुसार आत्मा शरीर से अत्यन्त भिन्न भी नहीं है और शरीर से अभिन्न ही है। चार्वाक दर्शन एकान्त भौतिकवादी है, उपनिषदों की विचारधारा एकान्त कूटस्थ इस प्रकार आत्मा के सम्बन्ध में जैन दर्शन के मौलिक और आत्मवादी है, किन्तु बुद्ध का मार्ग मध्यम मार्ग हैं जिसे बौद्ध दर्शन स्पष्ट विचार है। में प्रतीत्यसमुत्पाद- अमुक वस्तु की अपेक्षा से अमुक वस्तु उत्पन्न हुई कहा है। ३ महात्मा बुद्ध ने अनात्मवाद का उपदेश दिया है। इसका अर्थ आत्मा जैसे पदार्थ का सर्वथा निषेध नहीं है, किन्तु उपनिषदों में जो शाश्वत, अद्वैत आत्मा का निरूपण किया गया है और उसे संसार का एकमात्र मौलिक तत्त्व माना है, उसका खण्डन है। यद्यपि चार्वाक की तरह बुद्ध भी अनात्मवादी हैं, किन्तु बुद्ध पुद्गल, आत्मा, जीव, चित आदि को एक स्वतन्त्र वस्तु मानते हैं जबकि चार्वाक दर्शन में चैतन्य की उत्पत्ति में चैतन्य के अतिरिक्त भूत ही कारण है, चैतन्य नहीं । सारांश यह है कि भूतों के सदृश विज्ञान भी एक मूल तत्त्व है, जो बुद्ध की दृष्टि से जन्म और अनित्य है किन्तु चार्वाक भूतों के अतिरिक्त विज्ञान को मूल तत्त्व नहीं मानते चैतन्य विज्ञान की संतति-धरा को बुद्ध अनादि मानते हैं किन्तु चार्वाक नहीं। जब कभी भी महात्मा बुद्ध से आत्मा के सम्बन्ध में किसी जिज्ञासु ने प्रश्न किया तब उसका उत्तर न देकर वे मौन रहे हैं। मौन रहने का कारण पूछने पर उन्होंने कहा- यदि मैं कहूँ कि आत्मा है तो लोग शाश्वतवादी बन जाते हैं और यदि कहूँ कि आत्मा नहीं है तो लोग उच्छेदवादी बन जाते हैं, एतदर्थ उन दोनों के निषेध के लिये मैं मौन रहता हूँ। एक स्थान पर नागार्जुन लिखते हैं- "बुद्ध ने यह भी कहा कि आत्मा है और यह भी कहा कि आत्मा नहीं है । बुद्ध ने आत्मा - अनात्मा किसी का भी उपदेश नहीं दिया । " आत्मा क्या है? कहाँ से आया है और कहाँ आयेगा ? इन प्रश्नों के उत्तर भगवान् महावीर ने स्पष्टता से प्रदान किये हैं। उनका उत्तर देते समय बुद्ध ने उपेक्षा प्रदर्शित की है और उन्हें अव्याकृत कहकर छोड़ दिया हैं वे मुख्यतः दुःख और दुःखनिरोध, इन दो तत्वों पर प्रकाश डालते हैं। उन्होंने अपने प्रिय शिष्य को कहा - "तीर से व्यथित व्यक्ति के घाव को ठीक करने की बात विचारनी चाहिये। तीर कहाँ से आया है? किसने मारा है? इसे किसने बनाया है? मारने वाले का रंग-रूप कैसा है? आदि-आदि प्रश्न करना निरर्थक है।" बौद्धदर्शन में आत्म-तत्त्व के लिए पृथक पृथक् स्थलों पर कहीं मुख्य रूप से और कहीं गौण रूप से अनेक शब्द व्यवहत हुए For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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