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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड ७ हैं। जैसे कि पुद्गल, पुरिस, सत्ता, जीव, चित्त, मन, विज्ञान, नामरूप आदि। लौकिक दृष्टि से आत्मा की सत्ता है; जो विज्ञान, वेदना, संज्ञा, संस्कार और रूप- इन पाँच स्कन्धों का संघातमात्र है किन्तु पारमार्थिक रूप से आत्मा नहीं है। "मिलिन्द्र प्रश्न" में भदन्त नागसेन और राजा मिलिन्द का संवाद है। राजा मिलिन्द के प्रश्न के उत्तर में भदन्त नागसेन ने बताया कि पुगल का अस्तित्व केश, दाँत आदि शरीर के अवयवों तथा रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान इन सबकी अपेक्षा से है, किन्तु पारमार्थिक तत्त्व नहीं है। वैदिक दृष्टि उपनिषद् आदि परवर्ती साहित्य में जिस प्रकार आत्मामीमांसा की गई है वैसी मीमांसा वेदों में नहीं है। कठोपनिषद् में नचिकेता का एक मधुर प्रसंग है। बालक नचिकेता के पिता वाजश्रवस् ऋषि ने भीष्म प्रतिज्ञा ग्रहण की कि "मैं सर्वस्व दान दूंगा।" प्रतिज्ञानुसार सब कुछ दान दे दिया। बालक नचिकेता ने विचार किया- पिता ने अन्य वस्तुएँ तो दान दे दी हैं पर अभी तक मुझे दान में क्यों नहीं दिया? उसने पिता से पूछा- आप मुझे किसको दान दे रहे हैं? पिता मौन रहे। उसने पुन: वही प्रश्न दोहराया, फिर भी पिता का मौन भंग नहीं हुआ। तृतीय बार कहने पर पिता को क्रोध आ गया और उसने झझला कर कहा- जा, तुझे यमराज को दिया। बालक नचिकेता यम के घर पहुँचा। यमराज घर पर नहीं थे। वह भूखा प्यासा ही तीन दिन तक यमराज के द्वार पर बैठ कर उनकी प्रतीक्षा करता रहा। यमराज आये। बालक की भद्रता पर वे मुग्ध हो गये। तीन वर माँगने के लिए कहा। नचिकेता ने तीसरा वर माँगा-मृत्यु के पश्चात् कुछ कहते हैं मानव की आत्मा का अस्तित्व है, कुछ कहते हैं नहीं है, सत्य तथ्य क्या, यह आप मुझे बतायें- यही मेरा तृतीय वर है। यमराज ने अन्य वर माँगने की प्रेरणा दी, पर नचिकेता अपने कथन से तनिक भी विचलित नहीं हुआ। उसने कहा मुझे वही विधि बताइये, जिससे अमरता प्राप्त हो। यमराज ने कहा- तू इस आत्म-विद्या के लिए आग्रह न कर इसका 2 Jain Education International ज्ञान होना साधारण बात नहीं है। देवता भी इस विषय में सन्देहशील रहे हैं। पर नचिकेता की तीव्र अभिलाषा से यमराज ने प्रसन्न होकर आत्मसिद्धि का सूक्ष्म रहस्य उसे बताया। आत्मविद्य.....। व योगविधि को पाकर नचिकेता को ब्रह्मानन्द अनुभव हुआ। उसका राग-द्वेष नष्ट हो गया। इसी प्रकार जो आत्म-तत्त्व को पाकर आचरण करेंगे, वे भी अमरता को प्राप्त करेंगे। चरक के अनुसार अग्निवेश के उत्तर में पुनर्वसु ने भी आत्म-तत्त्व का निरूपण किया है। संक्षेप में यदि कहना चाहें तो बौद्धदर्शन आत्मा को स्थायी नहीं, किन्तु चेतना का प्रवाह मात्र मानता है। दीपशिखा के रूपक से प्रस्तुत कथन का प्रतिपादन किया गया हैं। जैसे, दीपक की ज्योति जगमगा रही है किन्तु जो लौ पूर्व क्षण में है, वह द्वितीय क्षण में नहीं। तेल प्रवाह रूप में जल रहा है, लौ उसके जलने का परिणाम का ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा व्यक्त की। है प्रतिपल, प्रतिक्षण वह नई उत्पन्न हो रही है किन्तु उसका बाह्य रूप उसी प्रकार स्थितिशील पदार्थ के रूप में दृष्टिगोचर हो रहा है। बौद्धदर्शन के अनुसार आत्मा के सम्बन्ध में भी ठीक यही स्थिति चरितार्थ होती है। स्पष्ट है कि बौद्ध दर्शनश्रनात्मवादी होते हुए भी आत्मवादी है। छान्दोग्य उपनिषद् में महर्षि नारद और सनत्कुमार का संवाद हैं। सनत्कुमार के पूछने पर नारद ने कहा-वेद, पुराण, इतिहास आदि सभी विद्याओं का अध्ययन करने पर भी आत्मस्वरूप न पहचानने से मैं शोक ग्रस्त हैं, अतः आत्मज्ञान प्रदान कीजिये, और चिन्ताओं से मुक्त कीजिए। वृहदारण्यक उपनिषद् में याज्ञवल्क्य से मैत्रेयी ने भी आत्मविया उपनिषद् के ऋषियों ने कहा है- आत्मा ही दर्शनीय है, श्रवणीय है, मननीय है और ध्यान किये जाने योग्य है । मनुस्मृति के रचयिता आचार्य मनु कहते हैं सब ज्ञानों में आत्म ज्ञान ही श्रेष्ठ है। सभी विद्याओं में वही परा विद्या है, जिससे मानव को अमृत (मोक्ष) प्राप्त होता है। आत्मा शरीर से विलक्षण है। वह वाणी द्वारा अगम्य है। न वह स्थूल है, न ह्रस्व है, न विराट् है, न अणु है, न अरुण है, न द्रव है, न छाया है, न अन्धकार है, न हवा है, न आकाश है, न संग है, न रस है, न गंध है, न नेत्र है, न कर्ण है, न वाणी है, न मन है, न तेज है, न प्राण है, न मुख है, न माप है, उसमें न अन्तर है, न बाहर है। उपनिषदों में आत्मा के परिमाण की विभिन्न कल्पनाएँ मिलती हैं। छान्दोग्योपनिषद् में बताया है- "यह मेरी आत्मा अन्तर्हदय में रहती है। यह चावल से, जौ से, सरसों से, श्यामाक (साँवाँ) नामक धान से भी लघु है।" बृहदारण्यक में कहा है- "यह पुरुषरूपी आत्मा मनोमय भास्वान तथा सत्यरूपी है और उस अन्तर्हृदय में ऐसी रहती है जैसे चावल या जौ का दाना हो" । कठोपनिषद् में कहा है- "आत्मा अंगूठे जितनी बड़ी हैं, अंगूठे जितना वह पुरुष आत्मा के मध्य में रहता है।" कौषीतकी उपनिषद् में कहा है यह आत्मा शरीर व्यापी हैं तैत्तिरीय उपनिषद ने प्रतिपादित किया है अत्रमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय ये सभी आत्माएँ शरीर प्रमाण हैं। मुण्डकोपनिषद् आदि में आत्मा को व्यापक माना गया है:"हृदय कमल के भीतर यह मेरा आत्मा पृथ्वी, अन्तरिक्ष, द्युलोक अथवा इन सब लोकों की अपेक्षा बड़ा है।" For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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