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________________ धम्मपद" के अनुसार ऐसा आर्य ही ब्राह्मण है । अमोही, अलोभी, अद्वेषी, ज्ञानी एवं ध्यानी ब्राह्मण अर्हत् है -रवीणा सवं अरहन्तं तमहं ब्रभि ब्राह्मणं । इस दृष्टि से दोनों ब्राह्मण और अर्हत् में कोई भिन्नता है ही नहीं । उपर्युक्त कुरुजनों और आर्यजनों के विवेचन से यह पूर्णतया स्पष्ट हो जाता है कि शिष्ट उत्तरकुरुवासी ही आर्य थे जो कोसों दूर से चलकर जम्बुद्वीप में आए थे और आर्यावर्त भारतवर्ष के उत्तरपश्चिम में बस गए थे । ये निर्लोभी और कठोर परिश्रमी थे जिस कारण से ही अपने को इन्होंने एक समुन्नत एवं खुशहाल राष्ट्र बना लिया था । इनकी अपनी एक अन्य विशेषता यह भी थी कि ये अपने द्वारा बनाये गए नियमों का तथा सिद्धान्तों का स्वयं ही कड़ाई के साथ परिपालन करते थे ।ऐसा शील सम्पन्न एवं धर्मनिष्ठ राष्ट्र की कुरु राष्ट्र वा कुरुदेव ही कुरुक्षेत्र है जिसका कुछ एक भाग बौद्ध मज्झमण्डल में आता है जिसमें सम्यक्सम्बुद्ध गौतम बुद्ध का चङकमण हुआ था । निष्कर्ष : 1. वेद एवं पुराणों की रचना स्थली कुरुजांगल कुरुजनपद, कुरुदेश अथवा कुरुराष्ट्र किसी समय 300 योजन के विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ था जो कालान्तर में सिमट कर थानेसर के रूप में कुरुतीर्थ अतैर वर्तमान में दिल्ली से 160 किलोमीटर दूर उत्तर में छोटे शहर के रूप में विकसित कुरुक्षेत्र उपलब्ध होता है । 2. जैन आद्य तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव के पुत्र कुरुराज सोमप्रभ की उग्र तपस्या से पवित्र भूभाग कुरुक्षेत्र नाम से प्रख्यात हुआ जबकि महाभारत के वर्णनानुसार महाराज कुरु ने जिस भूमि का हल जोतकर कर्षण किया वह भूप्रदेश कुरुक्षेत्र कहलाने लगा । जैन बौद्ध कुरुजनपद को सोलह स्वतन्त्र गजतंत्रों में से एक स्वशासित राज्य मानते हैं । हुए कर्तव्य परायण, धार्मिक, परिश्रमी, धनधान्य से सम्पन्न कुरुदेशवासी नैतिक मर्यादा से बंधे इनका अपना धर्म था जिसे कुरुधम्म । कुरु धर्म कुरुओं का धर्म । कहलाता था । 3. 4. श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ अज्जरभविहि आरा जाइज्जर हेयथम्यओजो वा । रदणतयरूवं वा आरं जाइत्ति अज्ज इय वु ती ॥ 5. 7. 9. 6. शुल्लकोट्ठित का निवासी रट्ठपाल बौद्ध बन गया था । जम्बुद्वीप आदि चार द्वीपों से दूरस्थ उत्तरकुरु विद्वानों के लिए आज भी खोज का विषय बना हुआ है । 8. दिग्वियजी चक्रवर्ती मान्धाता के उत्तरकुरु प्रवास में उनके साथ कतिपय उत्तरकुरुवासी जन जम्बुद्वीप आर्यखण्ड में आ गए थे और वे सभी जहां बस गए वही भूखण्ड तभी से कुरुदेश अथवा कुरुराष्ट्र कहलाने लगा । कुरुजनपद के प्रमुख दो थुल्लकोट्ठित्त तथा कम्मासदम्म, निगम थे जहां भगवान बुद्ध का पदापर्ण हुआ था और जहां उन्होंने सतिपट्ठानसुत जैसे गम्भीर धर्म की देशना दी थी । थे जिस कारण उत्तरकुरुवासी निस्संदेह शिष्ट, सुशील और बड़े साहसी तथा परिश्रमी थे । नैतिक गुणसम्पन्न आर्य भी सम्भवतः इनसे भिन्न नहीं थे । अर्थात् इनमें अभिन्नता प्रतीत होती है । International धनधान्य एवं वैभव सम्पन्न, निश्चिन्त, गम्भीर प्रकृति शील कुरुदेशवासियों को आज भी देखा जा सकता है, जो सरल सहृदय हैं । हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 103 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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