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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था कहलाते हैं । ये लोभ रहित, साहसी, अपरिग्रही और नियत आयुवाले होते हैं । सज्जनता इनका विशिष्ट गुण है। आचार्य बुद्धघोष के मत में उत्तरकुरुवासी प्राकृतिक शील के कारण सदाचार के नियमों का उल्लंघन नहीं करते - उत्तरकुरूकानंमनुस्सानं अनीतिक्कम्मो पकतिसीलं | मत्स्यपुराण मे आगत विवरण से भी उक्तकथनकी स्पष्ट पुष्टि होती है । यहां कहा गया है कि मेरु के उतरमें दक्षिणी समुद्र तक फैला हुआ है । उत्तरकुरु की निरन्तर प्रवहमान नदियों में अमृततुल्य जल विद्यमान है । जहां मधु सदश मीठे फलों से लदे वृक्ष हैं जिनसे वस्त्र एवं आभूषणों की भी उपलब्धि होती है । शब्द रहित चारों ओर शीतल मन्द सुगन्धित वायु बहती रहती है । जिसका स्पर्श पाते ही लोकोतर आनन्द एवं सुख की अनुभूति होती है । ऐसे उत्तमोत्तभ पुण्यभूमि में देवलोक से च्युत धर्मात्मा जीव ही मानव जन्म धारण करते हैं । यहां सत्व जोड़े में जन्म लेते हैं । स्त्रियां यहां अप्सराओं से भी अधिक सुन्दर होती हैं । ये पराक्रमी उत्तरकुरुवासी ग्यारह हजार वर्षों तक जीवित रहते हैं और वे दूसरा विवाह नहीं करते । इस प्रकार विपलु वैभव सम्पन्न शीलवती एवं निष्काम भावी उत्तरकुरुवासिजन भोगभूमि तुल्य सुखों का भोग करते हैं। कुरु राष्ट्र अथवा कुरुदेश के सन्दर्भ में आचार्य वसुबन्धु के चिन्तन को नकारा नहीं जा सकता जैसे कि उन्होंने अभिधर्मकोशभाष्य में देह विदेह, कुरु, कौरव, न चामर, अवरचामर, शाठ्य और उत्तरमन्त्रिण इन आठ अन्तर द्वीपों की गणना की है । इसके इलावा इन अन्तर द्वीपों को यहां अन्य छोटे छोटे पांचसौ द्वीपों से घिरा हुआ बतलाया गया है । बौद्ध आचार्य संघभद्र के अभिमतानुसार देह, विदेह, कुरु और कौरव इन चार द्वीपों में कोई भी प्राणी निवास नहीं करता। ये द्वीप निर्जन हैं । यहां वर्णित निर्जनद्वीप कुरु हमें कुरुजाङगल का स्मरण कराता है जो एक समय मैदानी भाग था और जिसे निश्चित ही महाभारत युद्ध के लिए चुना गया होगा। _महाभारत के शल्यपर्व के अनुसार राजर्षि कुरु ने जिस भूखण्ड पर हल चलाया था और उक्त भूमि का कर्षण किया था जिससे उस प्रदेश का नाम कुरुक्षेत्र पड़ गया था। इस सम्बन्ध में बौद्धों का अपना भिन्न अभिमत है । दीघनिकाय की अट्ठकथा सुमंगलविलासिनी, मज्झिमनिकाय की अट्ठकथा पपञ्चसूहनी तथा दिव्यावदान के मान्धातावदान के अनुसार चक्रवर्ती महाराज मान्धाता, जिन्हें जैन तृतीयं चक्रवर्ती मघवा बतलाते हैं , ने षट्खण्डविजय के दौरान चारों द्वीपों को जीत लेने के बाद अपना कुछ समय उत्तरकुरु में बिताया था । जब वह वहां से जम्बूद्वीप लौटा तब उनके साथ द्वीपों के कतिपयलोग जम्बूद्वीप चले आए और जहां तहां ठहर गए । कालान्तर में जो जहां रह रहा था, महाराज ने उन्हीं के नाम पर उस उस प्रदेश का नामकरण कर दिया । उत्तरकुरु से आए हुए लोग जहां बस गऐ थे उस भूभाग को कुरुराष्ट्र या कुरुदेश से पुकारा जाने लगा - देव, मयं रंजो आनुभावेन आगता, इदानि गन्तं न सक्कोम, वसनद्वानं नो देहीति याचिंसु। सोतेसं एकमेकजनपदमदासि ....... उत्तरकुरुतो आगतमनुस्सेहि आवसितपदेसो कुरुरलु तिनाम लभि"। उपर्युक्त चर्चा से यह स्पष्ट व्यक्त होता है कि उत्तरकुरु और कुरु दोनों ही भिन्न-भिन्न स्थल है । जिस कुरुदेश वा कुरुक्षेत्र को हम खोजना चाहते है । वह कुरु अन्तरद्वीप विशेष ही सिद्ध होता है । दीपवंश भी इसका अर्थात् कुरुद्वीप का समर्थन करता है जिसमें आकर कुरुजन बस गए । लगता है कि ये कुरुजन और अन्य नहीं आर्यगण ही थे । कारण कि आर्य का यथार्थ अर्थ क्या है? जानना उपादेय है । कोश ग्रंथ आर्य का अर्थ - उत्तम वा श्रेष्ठ करते है जबकि जैन एवं बौद्ध यर्थाथ दृष्टा अर्हत् को ही आर्य बतलाते हैं । बौद्धों के अनुसार आर्य वह है जो पापकर्मों से अत्यधिक दूर चलागया हैं । जिसके समस्त अकुशल पाप धर्म नष्ट (दूर) हो चुके हैं । वह निष्कलंकी, अलोभी एवं अमोही ज्ञानी अर्हत् ही आर्य कहलाता है । जैनों की दृष्टि में भी आर्य वह है जिसने यथाभिलषित तत्व को उपलब्ध कर लिया है, जिसने अपने गुणों से पांचों इन्द्रियों के विषयरूप काष्ट को काटने में आरे के तुल्य रत्नत्रय, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यकचारित्र को धारण कर लिया है । वही निष्पाप भव्यजन आर्य है - हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 102 हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति goales-personal use only
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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