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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था नारकीय जीवों की पूर्वजन्म की स्मृति से पुनर्जन्म का अस्तित्व सिद्ध होता है। रागद्वेषात्मक प्रवृत्ति से पूर्वजन्म सिद्धि - प्रायः जीवों में पहले किसी के सिखाये बिना ही सांसारिक पदार्थों के प्रति स्वतः राग-द्वेष, मोह-द्रोह, आसक्ति-घृणा आदि प्रवृत्तियाँ पाई जाती है। ये प्रवृत्तियां पूर्वजन्म में अभ्यस्त या प्रशिक्षित होगी, तभी इस जन्म में उनके संस्कार या स्मरण इस जन्म में छोटे से बच्चे में परिलक्षित होते हैं। वात्स्यायन भाष्य में इस विषय पर विशद प्रकाश डाला गया है। आत्मा की नित्यता से पूर्वजन्म और पुनर्जन्म सिद्ध शरीर की उत्पत्ति और विनाश के साथ आत्मा उत्पन्न और विनष्ट नहीं होती। आत्मा (कर्मवशात्) तो एक शरीर को छोड़कर दूसरे नये शरीर को धारण करती है। यही पुनर्जन्म है। पूर्व शरीर का त्याग मृत्यु है और नये शरीर का धारण करना जन्म है। अगर वर्तमान शरीर के नाश एवं नये शरीर की उत्पत्ति के साथ साथ नित्य आत्मा का नाश और उत्पत्ति मानी जाए तो कृतहान (किये हुए कर्मों की फल प्राप्ति का नाश) और अकृताभ्युपगम (नहीं किये हुए कर्मों का फल भोग) दोष आऐंगें। साथ ही उस आत्मा के द्वारा की गई अहिंसादि की साधना व्यर्थ जाएगी। आत्मा की नित्यता के इस सिद्धान्त पर से पूर्वजन्म और पुनर्जन्म सिद्ध हो ही जाते हैं। जैन दर्शन तो आत्मा को ध्रुव, नित्य, शाश्वत, अविनाशी, अक्षय, अव्यय एवं त्रिकाल स्थायी मानता है। जन्म (जाति- देहोत्पत्ति) का कारण क्या है ? इसके उत्तर में दोनों दर्शनों ने बताया कि पूर्व शरीर में किये हुए कर्मों का फल - धर्माधर्म जो आत्मा में समवाय सम्बन्ध से रहा हुआ है, वही जन्म का देहोत्पत्ति का कारण है। धर्माधर्म रूप अदृष्ट से प्रेरित पंचभूतों से देह उत्पन्न होता है, पंचभूत स्वतः देह को उत्पन्न नहीं करते। देहोत्पत्ति में पंचभूत संयोग नहीं, पूर्वकर्म ही निरपेक्ष निमित्त है पंच भत वादियों का कथन है कि पथ्वी जल आदि पंचभतों के संयोग से ही शरीर बन जाता है, तब देहोत्पत्ति के निमित्त कारण के रूप में पूर्वकर्म मानने की क्या आवश्यक्ता है? जैसे पुरुषार्थ करके व्यक्ति भूतों से घट आदि बना लेता है, वैसे ही स्त्री-पुरुष-युगल पुरुषार्थ करके भूतों से शरीर उत्पन्न करता है। अर्थात स्त्री-पुरुष युगल के पुरूषार्थ से शुक्र-शोणित-संयोग होता है, फलतः उससे शरीर उत्पन्न होता है, तब फिर शरीरोत्पत्ति में पूर्वकर्म को निमित्त मानने की जरूरत ही कहाँ रहती है ? कर्मनिरपेक्ष भूतों से जैसे घट आदि उत्पन्न होते हैं, वैसे ही कर्मनिरपेक्ष भूतों से ही देह उत्पन्न हो जाता है। इसके उत्तर में न्याय-वैशेषिक कहते हैं - घट आदि कर्म-निरपेक्ष उत्पन्न होते हैं, यह दृष्टान्त विषय होने से हमें स्वीकार नहीं है, क्योंकि घट आदि की उत्पत्ति में बीज और आहार निमित्त नहीं हैं जबकि शरीर उत्पत्ति में ये दोनों निमित्त है। इसके अतिरिक्त शुक्र-शोणित के संयोग से शरीरोत्पत्ति (गर्भाधान) सदैव नहीं होती। इसलिए एकमात्र शुक्र-शोणित संयोग ही शरीरोत्पत्ति का निरपेक्ष कारण नहीं है, किसी दूसरी वस्तु की भी इसमें अपेक्षा रहती है, वह है-पूर्वकर्म। पूर्वकर्म के बिना केवल शुक्र-शोणित संयोग शरीरोत्पत्ति करने में समर्थ नहीं है। अतः भौतिक तत्वों को शरीरोत्पत्ति का निरपेक्ष कारण न मानकर पूर्वकर्म सापेक्ष कारण मानना चाहिए। पूर्वकर्मानुसार ही शरीरोत्पत्ति होती है। जीव के पूर्वकर्मों को नहीं माना जाएगा तो विविध आत्माओं को जो विविध प्रकार का शरीर प्राप्त होता है, इस व्यवस्था का समाधान नहीं हो सकेगा। अतः शरीरादि को विभिन्नता के कारण के रूप में पूर्वकर्मों को मानना अनिवार्य है। अदृष्ट (कर्म) के साथ ही पूर्वजन्म-पुनर्जन्म का अटूट सम्बन्ध : वैशेषिक दर्शन के इस सिद्धान्त के विषय में प्रश्न होता है कि इच्छा द्वेषपूर्वक की जाने वाली अच्छी-बुरी प्रवृत्ति (क्रिया) तो क्षणिक है, वह तो नष्ट हो जाती है, फिर सभी क्रियाओं का फल इस जन्म में नहीं मिलता, प्रायः उनका हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 16 हेमेन्द्र ज्योति * हेगेन्द ज्योति J a nindmeriorials
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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