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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था फल जन्मान्तर में मिलता है, अतः क्षणिक क्रिया अपना फल जन्मान्तर में कैसे दे सकती है ? इसका समाधान 'अदृष्ट' की कल्पना करके किया गया है, उस क्रिया और फल के बीच में दोनों को जोड़ने वाला अदृष्ट रहता है। क्रिया को लेकर जन्मा हुआ वह अदृष्ट आत्मा में रहता है और सुख रूप या दुख रूप फल आत्मा में उत्पन्न करके, उसके द्वारा पूरा भोग लिये जाने के बाद ही वह (अदृष्ट) निवृत्त होता है। शुभ प्रवृत्तिजन्य अदृष्ट को धर्म और अशुभ प्रवृत्तिजन्य अदृष्ट को अधर्म कहा जाता है। धर्मरूप अदृष्ट आत्मा में सुख पैदा करता है और अधर्मरूप अदृष्ट दुख। वस्तुतः अदृष्ट का कारण क्रिया (प्रवृत्ति) को नहीं, इच्छा द्वेष को ही माना गया है। इच्छा द्वेष सापेक्ष क्रिया ही अदृष्ट की उत्पादिका है। इन सब युक्तियों से नित्य आत्मा के साथ कर्म और पुनर्जन्म - पूर्वजन्म का अविच्छिन्न प्रवाह सिद्ध होता है। सांख्यदर्शन में कर्म और पुनर्जन्म - सांख्यदर्शन का भी यह मत है कि पुरुष (आत्मा) अपने शुभाशुभ कर्मों के फलस्वरूप नाना योनियों में परिभ्रमण करता है। परन्तु सांख्यदर्शन की यह मान्यता है कि “यद्यपि शुभाशुभ कर्म स्थूलशरीर के द्वारा किये जाते हैं, किन्तु वह (स्थूल शरीर) कर्मों के संस्कारों का अधिष्ठाता नहीं है, उनका अधिष्ठाता है - स्थूल शरीर से भिन्न सूक्ष्म भारीर। सूक्ष्म शरीर का निर्माण पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच तन्मात्राओं, महत्वत्व (बुद्धि) और अहंकार से होता है। मृत्यु होने पर स्थूल भारीर नष्ट हो जाता है, सूक्ष्म शरीर विद्यमान रहता है। प्रत्येक संसारी आत्मा (पुरुष) के साथ यह सूक्ष्म शरीर रहता है, इसे आत्मा का लिंग भी कहते हैं। यही पुनर्जन्म का आधार है।" सांख्यकारिका में बताया गया है - लिंग (सूक्ष्म) शरीर बार-बार स्थूल शरीर को ग्रहण करता है और पूर्वगृहीत शरीरों को छोड़ता रहता है, इसी का नाम संसरण (संसार) है। मृत्यु होने पर सूक्ष्म शरीर नष्ट नहीं होता, किन्तु पुरुष (आत्मा) सूक्ष्म शरीर के सहारे से पुराने स्थूल शरीर को छोड़कर नये स्थूल शरीर में प्रविष्ट हो जाता है। संसार की अनेक योनियों में पुरुष (आत्मा) का परिभ्रमण करने का कारण सूक्ष्म शरीर ही है। जब तक उसका सूक्ष्म शरीर नष्ट नहीं हो जाता, तब तक संसार में आवागमन होता रहता है। पूर्वजन्म के अनुभव और कर्मो के संस्कार इस लिंग (सूक्ष्म) शरीर में निहीत रहते हैं । चूंकि सांख्यदर्शन पुरुष (आत्मा) को कूटस्थ - नित्य मानता है, इसलिए उसका स्थानपरिवर्तन (विभिन्न योनियों में गमनागमन) या पुनर्जन्म शक्य नहीं है, इसलिये उसने इस लिंग शरीर की कल्पना की । कर्म फल भोग का एकमात्र साधन यही लिंग शरीर है। पुनर्जन्म भी लिंग शरीर का ही होता है, आत्मा (पुरुष) का नहीं। लिंग शरीर के निमित्त से पुरुष का प्रकृति के साथ सम्पर्क होने पर जन्म-मरण का चक्र प्रारंभ हो जाता है। उसकी प्रक्रिया इस प्रकार है - जैसे रंगमंच पर एक ही व्यक्ति कभी अजातशत्रु कभी परशुराम और कभी राम के रूप में दर्शकों को दिखाई देता है, उसी प्रकार लिंग शरीर विभिन्न शरीर ग्रहण करके मनुष्य, देव, तिर्यंच (पशु-पक्षी या वनस्पति) आदि नाना रूपों में परिलक्षित होता है। इस प्रकार सांख्यदर्शन में भी पुनर्जन्म एवं पूर्वजन्म का अस्तित्व सिद्ध होता है। मीमांसा दर्शन में कर्म और पुनर्जन्म - मीमांसा दर्शन आत्मा को नित्य मानता है, इसलिए वह पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को मानता है। मीमांसा दर्शन में चार प्रकार के वेद-प्रतिपाद्य कर्म बताये गए है। 1. काम्य कर्म, 2. निषिद्ध कर्म, 3. नित्यकर्म और 4. नैमित्तिक कर्म। कामना विशेष की सिद्धि के लिए किया गया कर्म काम्यकर्म है। निषिद्ध कर्म अनर्थोत्पादक होने से निषिद्ध है। जो कर्म फलाकांक्षा के बिना किया जाता है, वह नित्यकर्म है। जैसे सन्ध्या वन्दन आदि। जो किसी अवसर विशेष पर किया जाता है, उसे नैमित्तिक कर्म कहा जाता है। जैसे श्राद्ध आदि कर्म। हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 17 हेगेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Free Marat
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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