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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ थेरीगाथा में यह बताया गया है कि "तथागत बुद्ध के कई शिष्य-शिष्याओं को अपने-अपने पूर्वजन्मों और पुनर्जन्मों का ज्ञान था। ऋषिदासी भिक्षुणी ने थेरीगाथा में अपने पूर्वजन्मों और पुनर्जन्मों का मार्मिक वर्णन किया है। “दीघ निकाय" में तथागत बुद्ध अपने शिष्यों से पूर्वजन्म और पुनर्जन्म का रहस्योद्घाटन करते हुए कहते हैं - "भिक्षुओ! इस प्रकार दीर्घकाल से मेरा और तुम्हारा यह आवागमन-संसरण चार आर्य सत्यों के प्रतिवेद्य न होने से हो रहा है। बौद्धदर्शन के अनुसार इसका फलितार्थ यह है कि पुनर्जन्म का मूल कारण अविद्या (जैन दृष्टि से भावकर्म) है। अविद्या के कारण संस्कार (मानसिक वासना), संस्कार से विज्ञान उत्पन्न होता है। विज्ञान चित्त की वह भावधारा है जो पूर्वजन्म में कृत कुशल-अकुशल कर्मों के कारण होती है, जिसके कारण मनुश्य को आँख, कान आदि से सम्बन्धित अनुभूति होती है। इस प्रकार बौद्ध-धर्म-दर्शन में भी कर्म और पुनर्जन्म का अटूट सम्बन्ध बताया गया है। न्याय-वैशेषिक दर्शन में कर्म और पुनर्जन्म नैयायिक और वैशेषिक दोनों आत्मा को नित्य मानते हैं। “मिथ्याज्ञान से राग (इच्छा) द्वेष आदि दोश उत्पन्न होते हैं। राग और द्वेष आदि से धर्म और अधर्म (पुण्य और पाप कर्म) की प्रवृत्ति होती है। इस प्रकार की प्रवृत्ति सुख दुख को उत्पन्न करती है। फिर वे सुख दुख जीव में मिथ्याज्ञानवश राग-द्वेषादि उत्पन्न करते हैं।” न्यायसूत्र में इस तथ्य को स्पष्ट किया गया है कि "मिथ्याज्ञान से राग द्वेषादि, रागद्वेषाधि दोषों से प्रवृत्ति (धर्माधर्म, पुण्य-पाप की) तथा प्रवृत्ति से जन्म और जन्म से दुख होता है। जब तक धर्माधर्म प्रवृत्तिजन्य संस्कार बने रहेंगे, तब तक शुभ-अशुभ कर्मफल भोगने के लिए जन्म-मरण का चक्र चलता रहेगा, जीव नये-नये शरीर ग्रहण करता रहेगा। शरीरग्रहण करने में प्रतिकूल वेदनीय होने के कारण दुख का होना अनिवार्य है। इस प्रकार मिथ्याज्ञान से दुखपर्यन्त उत्तरोत्तर निरन्तर अनुवर्तन होता रहता है। षड्दर्शन रहस्य में बताया है कि, घड़ी की तरह सतत् इनका अनुवर्तन होता रहता है । प्रवृति ही पुनः आवृत्ति का कारण होती है। पूर्वजन्म में अनुभूत विषयों की स्मृति से पुनर्जन्म सिद्धि पुनर्जन्म की सिद्धि के लिए दोनों दर्शनों का मुख्य तर्क इस प्रकार है - नवजात शिशु के मुख पर हास्य देखकर उसको हुए हर्ष का अनुभव होता है। इष्ट विषय की प्राप्ति होने पर जो सुख उत्पन्न होता है, वह हर्ष कहलाता है। नवजात शिशु किसी भी विषय को इष्ट तभी मानता है, जब उसे ऐसा स्मरण होता है कि तज्जातीय विषय से पहले उसे सुखानुभव हुआ हो, उस अनुभव के संस्कार पड़े हों, तथा वे संस्कार वर्तमान में उक्त विषय के उपस्थित होते ही जागृत हुए हों। नवजात शिशु को इस जन्म में तज्जातीय विषय का न तो पहले कभी अनुभव हुआ है, न ही वैसे संस्कार पड़े हैं। फिर भी उक्त विषय से सुखानुभव होने की स्मृति उसे होती है और वह उक्त विषय को वर्तमान में इष्ट एवं सुखकर मानता है। इसलिए यह मानना ही पड़ेगा कि नवजात शिशु को तज्जातीय विषय से सुखानुभव हुआ तथा उस अनुभव के जो संस्कार पूर्वजन्म में पडें, वे ही इस जन्म में शिशु की आत्मा में है। इस प्रकार पूर्वजन्म सिद्ध हो जाता है। पूर्वजन्म सिद्ध होते ही मरणोत्तर पुनर्जन्म सिद्ध होता है। ___ "सिद्धिविनिश्चय' की टीका में इसी प्रकार पुनर्जन्म की सिद्धि की गई है - जिस प्रकार एक युवक का शरीर शिशु की उत्तर्वर्ती अवस्था है, इसी प्रकार नवजात शिशु का भारीर भी पूर्वजन्म के पश्चात होने वाली अवस्था है। यदि ऐसा न माना जाएगा तो पूर्वजन्म में अनुभूत विषय का स्मरण और तदनुसार प्रवृत्तियां नवजात शिशु में कदापि ही हो सकती है, किन्तु होती है, इसलिए पुनर्जन्म को और उससे सम्बद्ध पूर्वजन्म को माने बिना चारा नहीं। पूर्वजन्म के वैर - विरोध की स्मृति से पूर्वजन्म की सिद्धिः जैन सिद्धान्तानुसार नारक जीवों को अवधिज्ञान (मिथ्या हो या सम्यक) जन्म से ही होता है। उसके प्रभाव से उन्हें पूर्वजन्म की स्मृति होती है। नारकीय जीव पूर्वभवीय वैर - विरोध आदि का स्मरण करके एक दूसरे नारक को देखते ही कुत्तो की तरह परस्पर लड़ते हैं, एक दूसरे पर झपटते और प्रहार करते हैं। एक दूसरे को काटते और नोचते हैं। इस प्रकार वे एक दूसरे को दुखित करते रहते हैं। इस प्रकार पूर्वभव में हुए वैर आदि का स्मरण करने से उनका वैर दृढ़तर हो जाता है। हेमेन्द ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 15 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्च ज्योति J a tion pumptional o Private
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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