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________________ युगवीर आचार्य श्रीविजयवल्लभ : जीवनज्योति प्रा० पृथ्वीराज जैन, एम्. ए., शास्त्री 'अात्मानन्दप्रदं देवं महादेवं जगद्गुरुम्। विश्ववन्द्यमहं वन्दे वल्लभं लोकवल्लभम् ॥' किसी भी व्यक्ति, संस्था अथवा भवन के केवल बाह्य शरीर, रूपरेखा या प्राकृति ही उसके परिचय के लिए पर्याप्त नहीं होते। इनका वास्तविक स्वरूप अन्तःस्थ प्राणों से ही ज्ञात हुश्रा करता है। जैन धर्म तथा संस्कृति के हृदय का ज्ञान भी हमें जैन समाज में प्रचलित रीतिरिवाज या क्रियाकाण्ड के बाह्य रूप से नहीं हो सकता। उसके सच्चे प्रतीक वे अटल और मौलिक सिद्धान्त हैं, अथवा चतुर्विधसंघसंगठन के वे सुदृढ़ नियम हैं जो इस के व्यावहारिक दृश्य रूप को विश्व के सन्मुख उपस्थित करने में वृक्ष की जड़ का कार्य करते हैं। इन में निःस्पृह, स्वार्थत्यागी, संयमी और सेवापरापण भिक्षु व भिक्षुणियों का संगठन एक विशेष महत्त्व रखता है। सन्त कबीर के अनुसार इस संसार में दो पदार्थ ही थर्मापोली के दुर्ग के समान अजेय अथवा दुर्जेय हैं-'इक कञ्चन अरु कामिनी दुर्गम घाटी दोय'। जैन तीर्थंकरों ने अनादिकाल से संघ के प्राणाधार श्रमणों के लिए यह व्यवस्था की थी कि वे संपत्ति और स्त्री के लेशमात्र प्रलोभन से भी ऊंचे उठ कर, इन से सर्वथा विरक्त हो कर प्रात्मकल्याण और परहितसाधन के श्रेष्ठ कार्य में रत हों। यही कारण है कि जैन धर्म व समाज का उज्ज्वल इतिहास इन त्यागी श्रमणों की अमर कृतियों अथवा इन के द्वारा उपदिष्ट लोकहित की प्रवृत्तियों का इतिहास है। इस अनुपम और उपयोगी संस्था को भिन्नभिन्न युगों में अनेक धुरन्धर श्राचार्यों ने अपनी सेवाओं से अलङ्कत किया है। वर्तमान युग में भी एक ऐसे ही शासनप्रभावक श्राचार्य हुए हैं जिन का गतवर्ष ८४ वर्ष की अवस्था में स्वर्गवास हुअा। उन्होंने अपने गुरु, १६ वीं शताब्दी के भारतीय जागरण के एक अग्रदूत, स्वर्गीय जैनाचार्य श्रीमद् विजयानन्द सूरि (श्री आत्मारामजी) के जीवन ध्येयकी पूर्ति के लिए अपने सर्वस्व की बाज़ी लगा दी और वे अंतिम श्वास तक, चैतन्य की स्थिति पर्यन्त समाजसेवा व जैन शासन की उन्नति की माला का ही जाप करते रहे। समाज के कल्याण के पथिक को प्रांतरिक निर्भयता, निलेपता व विवेक की परम आवश्यकता होती है। इन के बिना वह लक्ष्यबिन्दु की ओर बढ ही नहीं सकता। इन गुणों के कारण ही वह जनगणमन की श्रद्धा का पात्र बनता है। हमें प्राचार्यप्रवर श्री विजयवल्लभ के पावन जीवन की झांकी में यह देखना है कि उन्हों ने अपने व्यक्तित्व को विश्वकल्याण के महान् उद्देश्य की पूर्ति में किस प्रकार लीन कर दिया। श्री विजयवल्लभ का जन्म बड़ौदा में वि० सं० १६२७ की कार्तिक शुदि द्वितीया को, मानो उस दिन की चन्द्रकला के समान जनता के हृदय में उल्लास का संचार करते हुए और उत्तरोत्तर वृद्धि का अाभास देते हुए, धर्मपरायण और व्यवहारशुद्धि के उपासक श्री दीपचन्द के घर धर्मकर्मानुरक्ता विश्वपूज्या माता इच्छाबाई की रत्नजननी कूख से हुआ था। शिशु अवस्था में बालक का नाम छगन रखा गया और उसे धार्मिक संस्कार व धार्मिक वातावरण पैतृक संपत्ति के रूप में प्राप्त हुए। किंतु इस अनमोल संपत्ति के प्रदाता छगन के मातापिता उसे अधिक समय तक अपनी स्नेहस्निग्ध शीतलछाया का दान न दे सके। बाल्यावस्था में ही पहले छगन को पिता का वियोग सहन करना पड़ा। और दोचार वर्ष बाद ही माता के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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