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________________ महाराष्ट्री प्राकृत में मूल 'य' वर्ण का अभाव डा० सुदर्शन लाल जैन - प्राकृत वैयाकरणों ने संस्कृत के शब्दों को मूल मानकर प्राकृत भाषा का अनुशासन किया है। महाराष्ट्री प्राकृत में संस्कृत के मूलवर्ण 'य' का अभाव है क्योंकि संस्कृत शब्दों में जहाँ भी 'य' वर्ण आता है उसका सामान्यरूप से-आदि वर्ण होने पर 'ज' हो जाता है, संयुक्तावस्था में तथा दो स्वरों के मध्य में होने पर लोप हो जाता है । साहित्यिक महाराष्ट्री प्राकृत में जहाँ कहीं भी 'य' वर्ण दिखलाई देता है वह मूल संस्कृत का 'य' नहीं है अपितु लुप्त व्यञ्जन के स्थान पर होने वाली लघुप्रयत्नोच्चारित 'य' ध्वनि ( श्रुति = श्रुतिसुखकर ) है। इसकी पुष्टि प्राकृत-व्याकरण के नियमों से तथा प्राचीन लेखों से होती है। महाराष्ट्री प्राकृत में वर्ण-लोप सर्वाधिक हुआ है जिससे कहीं-कहीं स्वर ही स्वर रह गए हैं। मूल संस्कृत के 'य' वर्ण में होने वाले परिवर्तन निम्न हैं१. पदादि 'य' का 'ज' होता है। जैसे—यशः>जसो, युग्मम् > जुग्गं, यमः>जमो; याति> जाइ, यथा>जहा, यौवनम्>जोव्वणं । ‘पदादि में न होने पर 'ज' नहीं होता' इसके उदाहरण के रूप में आचार्य हेमचन्द्र अपनी वृत्ति में अवयवः>अवयवो और विनयः>विणओ इन दो उदाहरणों को प्रस्तुत करते हैं। यहाँ 'विनय' के 'य' का लोप स्पष्ट है जो आगे के नियम से ( दो स्वरों के मध्य होने से ) हुआ है। अवयवों में जो 'य' दिखलाई पड़ रहा है वह वस्तुतः 'य' श्रुति वाला 'य' है जो 'य' लोप होने पर हुआ है । अतः इसका रूप 'अअअओ' भी होता है । यहाँ दो स्वरों के मध्यवर्ती 'य' लोप में तथा 'य' श्रुति में कोई प्रतिबन्धक कारण नहीं है। यहीं आचार्य हेमचन्द्र बहुलाधिकार से सोपसर्ग अनादि पद में भी 'य' के 'ज' का विधान भी करते हैं । जैसे-संयमः>संजमो, संयोगः>संजोगो, अपयशः>अवजसो । वररुचि ने भी इस संदर्भ में अयशः>अजसो यह उदाहरण दिया है। हेमचन्द्र आगे इसका प्रतिषेध करते हुए (सोपसर्ग 'य' का 'ज' नहीं होता) प्रयोगः>पओओ उदाहरण प्रस्तुत करते हैं जिसमें 'य' का हआ है। यहीं पर पदादि 'य' लोप का भी उदाहरण आर्षप्रयोग के रूप में दिया हैयथाख्यातम् >अहक्खायं; यथाजातम् >अहाजायं । ६ 'यष्टि' शब्दस्थित पदादि 'य'का 'ल'विधान किया गया है । जैसे--यष्टि:>लट्ठी । खड्गयष्टि और मधुयष्टि में भी य को ल हुआ है। जैसे १. आदेर्यो जः । हेम० ८.१.२४५ । वर० २. ३१ । २. हेम० ८.१.२४५ वृत्ति । ३. वही, वृत्ति । ४, वर० २.२ । ५. हेम ८.१.२४५ वृत्ति । ६. वही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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