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________________ २० डॉ सुदर्शन लाल जैन खग्गलट्ठी, महुलट्ठी' । अन्यत्र भी 'य' का 'ज' होता है,इसके उदाहरण आगे विशेष परिवर्तन में दिखलावेंगे। २. स्वर-मध्यवर्ती 'य' का लोपहोता है। जैसे-दयालु:>दयाल; नयनम् >नयणं (णयणं); वियोगः>विओओ । ये तीन उदाहरण हेमचन्द्र ने 'य' लोप के दिए हैं। यहाँ 'दयाल' और 'नयणं' इन दो उदाहरणों में स्थित 'य' को देखकर लगता है मानो 'य' लोप नहीं हुआ है, मूल संस्कृत का 'य' ही है, जबकि स्थिति यह है कि यहाँ दृश्यमान् 'य' लघुप्रयत्नोच्चारित 'य' श्रुति वाला है जो 'य' लोप के बाद 'अ' उवृत्त स्वर के रहने पर हुआ है। इसीलिए इन दोनों उदाहरणों को हेमचन्द्र 'य' श्रुति में भी देते हैं । . इससे यह सिद्ध होता है कि स्वर मध्यवर्ती 'क, ग' आदि वर्गों का लोप तो प्रायः होता है परन्तु 'य' का नित्य लोप होता है यदि कोई अन्य परिवर्तन न हो। 'य' की स्थिति अन्य वर्गों से भिन्न है। संस्कृत से प्राकृत में परिवर्तित होते समय संयुक्त व्यञ्जन वर्णों के बलाबल के संदर्भ में भाषा वैज्ञानिकों ने 'य' को कमजोर वर्ण माना है। सिर्फ 'र' ही ऐसा वर्ण है जो 'य' से कमजोर बतलाया है ( ल स व य र-क्रमशः निर्बलतर )। परन्तु जब 'य' और 'र' का संयोग होता है तब वहाँ भी 'य' हट जाता है अथवा य को सम्प्रसारण (इ) हो जाता है। जैसे-भार्या>भज्जा ( भारिया ), सौन्दर्यम् >सुन्दरिअं। इसीलिए हेमचन्द्राचार्य ने सूत्र में प्रयुक्त 'प्रायः' की व्याख्या करते हुए वृत्ति में लोपाभाव के जो उदाहरण दिए हैं उनमें 'य' लोपाभाव का एक भी उदाहरण नहीं दिया है जब कि 'ग' और 'व' के लोपाभाव के तीन-तीन उदाहरण दिए हैं तथा शेष वर्गों के लोपाभाव का एक-एक उदाहरण दिया है। वहाँ 'पयागजलं' (प्रयागजलम्) जो उदाहरण दिया गया है वह क्रमप्राप्त 'ग' लोपाभाव का उदाहरण है, न कि 'य' लोपाभाव का। ___ वररुचि ने प्रायः शब्द की व्याख्या में 'य' से सम्बंधित लोपाभाव का एक उदाहरण दिया है 'अयशः>अजसो । यहाँ 'य' का 'ज' हुआ है। वस्तुतः यह नत्र समासत पदादि वर्ण है। ३ 'य' श्रुति —'क, ग' आदि वर्गों का लोप होने पर यदि वहाँ 'अ, आ' शेष रहे तथा अवर्ण परे (पूर्व में) हो तो लुप्त व्यञ्जन के स्थान पर लघु-प्रयत्नतर 'य' श्रुति होती है। जैसे-तीर्यकरः>तित्ययरो, तित्थअरो; नगरम्>रयरं, नअरं; काचमणिः>कायमणी; रजतम्> रययं; मदनः>मयणो, म अणो; विपुलम् >वियुलं, विउलं; दयालुः>दयालू ; लावण्यम्>लायणं । यह नियम 'अ' स्वर शेष रहने पर ही लागू होता है, अन्य स्वर शेष रहने पर प्रायः नहीं प्रयुक्त होता है । जैसे-वायुः>वाऊ, राजीवम्>राईवं । कभी-कभी अवर्ण पूर्व में न रहने पर भी 'य' श्रुति होती है । जैसै-पिबति-पियइ। १. यस्यां लः । वर० २. ३२ तथा वृत्ति (भामहकृत)। हेम० ८.१.२४७ । २. कगचजतदपयवां प्रायो लुक । हेम० ८.१.१७७ । वर० २.२ । ३. अवर्णो यश्रुतिः । हेम० ८.१.१८० । ४. प्राकृत-दीपिका, पृ० १६ । ५. वर० २.२ वृत्ति । ६. हेम० ८. १. १८० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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