SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 280
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वादिराजसूरि के जीवनवृत्त का पुनरीक्षण २११ किसी भी आन्तरिक या बाह्य प्रमाण द्वारा वादिराज का जन्म काल ज्ञात नहीं हो सका है । परन्तु यतः उन्होंने पार्श्वनाथचरित की रचना शक सं० ९४७ कार्तिक शुक्ला तृतीया को की थी', अतः उनका जन्म समय ३० - ४० वर्ष पूर्व मानकर ९८५-९९५ ई० के लगभग माना जा सकता है । पंचवस्ति के ११४७ ई० में उत्कीर्ण शिलालेख में वादिराज को गंगवंशीय राजा राजमल्ल ( चतुर्थ ) सत्यवाक का गुरु बताया गया है । यह राजा ९ ७ ई० में गद्दी पर बैठा था । समरकेशरी चामुण्डराय इसका मन्त्री था । अतः वादिराज का समय इससे पूर्व ठहरता है । इन आधारों पर वादिराज का समय ९५०-१०५० ई० के मध्यवर्ती मानने में कोई असंगति प्रतीत नहीं होती है । आचार्य बलदेव उपाध्याय ने पार्श्वनाथचरित का प्रणयन सिंहचक्रेश्वर चालुक्यचक्रवर्ती जयसिंहदेव की राजधानी में शक सं० ९६४ में किया है। उनका यह कथन पार्श्वनाथचरित के नग = सात वाधि = चार और रन्ध्र = नव की विपरीत गणना ( अंकानां वामा गतिः ) ७४७ शक स० विरुद्ध, अतएव असंगत है । एक और बिचित्र बात देखने में आई है कि डा० हीरालाल जैन जैसे सप्रसिद्ध विद्वान् ने भी वादिराज को कहीं दसवीं, कहीं ग्यारहवीं और कहीं-कहीं तेरहवीं शताब्दी तक पहुँचा दिया है । डा० जैन ने यशोधरचरित का उल्लेख करते हुए १०वीं शताब्दी, एकीभावस्तोत्र के प्रसंग में ११वीं शताब्दी पार्श्वनाथचरित के सम्बन्ध में भी ११वीं शताब्दी, तथा न्यायविनिश्चयविवरण टीका के उल्लेख में १३वीं शताब्दी का समय वादिराज के साथ लिखा है । स्पष्ट है कि वादिराजसूरि का १३वीं शती में लिखा जाना या तो मुद्रणगत दोष है अथवा डा० जैन ने काल-निर्धारण में पार्श्वनाथचरित की प्रशस्ति का उपयोग नहीं किया है तथा पूर्वापरता का ध्यान रखे बिना एक ही व्यक्ति को १० वीं से १३ वीं शताब्दी तक स्थापित करने का विचित्र प्रयास किया है । अनेक शिलालेखों तथा अन्यत्र वादिराजसूरि की अतीव प्रशंसा की गई है । मल्लिषेणप्रशस्ति में अनेक पद्य इनकी प्रशंसा में लिखे गये हैं । यह प्रशस्ति १०५० शक स ं० ( ११२८ ई०) में उत्कीर्ण की गई थी जो पार्श्वनाथवस्ति के प्रस्तरस्तम्भ पर अंकित है । यहाँ वादिराज को महान् कवि, वादी और विजेता के रूप में स्मरण किया गया है । एक स्थान पर तो उन्हें जिनराज के समान तक कह दिया गया है ।" इस प्रशस्ति के "सिंहसमर्च्यपीठविभवः” १. शाकाब्दे नगवाधिरन्धगणने । पार्श्वनाथचरित, प्रशस्तिपद्य ५ २. द्रष्टव्य - " एकीभावस्तोत्र" की परमानन्द शास्त्री द्वारा लिखित प्रस्तावना पृ० ४ एवं नाथूराम प्रेमी का "वादिराजसूरि" लेख, जैनहितैषी भाग ८ अंक ११ पृ० ५११ ३. संस्कृत साहित्य का इतिहास, प्रथम भाग, काव्य खण्ड, पंचम परिच्छेद पृ० २४५ ४. भारतीय संस्कृति के विकास में जैनधर्म का योगदान पृ० १७१ ****** ५. वही, पृ० १२६ ६. वही, पृ० १८८ ७. वही, पृ० ८९ ८. त्रैलोक्यदीपिका वाणी द्वाभ्यामेवोद्गादिह । जिनराजत एकस्मादेकस्माद् वादिराजतः ॥ — जैन शिलालेख संग्रह भाग-१, लेखांक ५४, मल्लिषेणप्रशस्ति, पद्य ४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy