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________________ २१२ डा० जयकुमार जैन विशेषण से ज्ञात होता है कि महाराजा जयसिह द्वारा उनका आसन पूजित था। इतने कम समय में इतनी अधिक प्रशंसा पाने का सौभाग्य कम ही कवियों अथवा आचार्यों को मिला है। ___ काव्य पक्ष की अपेक्षा वादिराजसूरि का तार्किक ( न्याय ) पक्ष अधिक समृद्ध है। आचार्य बलदेव उपाध्याय की यह उक्ति कि "वादिराज अपनी काव्य प्रतिभा के लिए जितने प्रसिद्ध हैं उससे कहीं अधिक तार्किक वैदुषी के लिए विश्रुत हैं ।'' सर्वथा समीचीन जान पड़ती है। यही कारण है कि एक शिलालेख में वादिराज को विभिन्न दार्शनिकों का एकीभूत प्रतिनिधि कहा गया है "सदसि यदकलंक कीर्तने धर्मकीर्तिः वचसि सुरपुरोधा न्यायवादेऽक्षपादः । इति समयगुरुणामेकतः सगतानां प्रतिनिधिरिव देवो राजते वादिराजः ॥२ अन्यत्र वादिराजसूरि को षट्तर्कषण्मुख, स्याद्वादविद्यापति, जगदेकमल्लवादी उपाधियों से विभूषित किया गया है। एकीभावस्तोत्र के अन्त में एक पद्य प्राप्त होता है जिसमें वादिराज को समस्त वैयाकरणों, ताकिकों एवं साहित्यिकों एवं भव्यसहायों में अग्रणी बताया गया है। यशोधरचरित के सुप्रसिद्ध टीकाकार लक्ष्मण ने उन्हें मेदिनीतिलक कवि कहा है। भले ही इन प्रशंसापरक प्रशस्तियों और अन्य उल्लेखों में अतिशयोक्ति हो पर इसमें सन्देह नहीं कि वे महान् कवि और तार्किक थे । वादिराजसूरि की अद्यावधि पाँच कृतियाँ असंदिग्ध हैं-(१) पार्श्वनाथचरित, (२) यशोधरचरित, (३) एकीभावस्तोत्र, (४) न्यायविनिश्चयविवरण और (५) प्रमाण निर्णय । प्रारम्भिक तीन साहित्यिक एवं अन्तिम दो न्याय विषयक हैं। इन पाँच कृतियों के अतिरिक्त श्री अगरचन्द्र नाहटा ने उनकी त्रैलोक्यदीपिका और अध्यात्माष्टक नामक दो कृतियों का और उल्लेख किया है। इनमें अध्यात्माष्टक भा०दि० जैन ग्रन्थमाला से वि० १७७५ (१७९८ ई०) में प्रकाशित भी हुआ था। श्री परमानन्द शास्त्री इसे वाग्भटालंकार के टीकाकार वादिराज १. संस्कृत साहित्य का इतिहास, भाग १, पंचम परिच्छेद, पृ० २४५ २. जैनशिलालेख संग्रह भाग २, लेखांक २१५ एवं वही भाग ३ लेखांक ३१९ ३. जैन शिलालेख संग्रह भाग २, लेखांक २१३ एवं भाग ३ लेखांक ३१५ ४. वादिराजमनुशाब्दिकलोको वादिराजमनुताकिकसिंहाः । वादिराजमनुकाव्यकृतस्ते वादिराजमनुभव्यसहाया: ।। एकीभाग, अन्त्य पद्य ५. वादिराजकविं नौमि मेदिनीतिलकं कविम् । यदीय रसनारंगे वाणी नर्तनमातनीत् ॥ यशोधरचरित, टीकाकार का मंगलाचरण ६. श्री अगरचन्द्र नाहटा द्वारा लिखित "जैन साहित्य का विकास" लेख । जैन सिद्धान्त भास्कर भाग १६ किरण १ जून ४९ पृ० २८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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