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________________ श्रमण : महावीर तीर्थ का प्रमुख स्तम्भ २०१ ७. निराहार–संभव हो, शरीर साध्य हो, मानसिक शैथिल्य न आए वहाँ तक समभाव एवं निष्कामना-पूर्वक उग्र तपश्चरण द्वारा पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा करना । शारीरिक क्षमता की दृष्टि ट से निराहार रहना सम्भव न हो तो उनोदरी आदि ६ भेदों वाली बाह्य तपस्या का अवलंबन लेना। संयम-पालन की भावना को प्रधानता देते हुए, शारीरिक क्षुधा को शान्त करने लिये गोचरी के ४७ दोषों को टालते हुए गवेषणापूर्वक मधुकरी प्राप्त करना और अनासक्ति पूर्वक भक्षण करना। उत्सर्ग मार्ग में एकासन और ६ विगय रहित भोजन तो आवश्यक है ही। ८. स्वाध्याय-पठन, पाठन, अर्थ-चिन्तन, सूत्रालापकों की पुनरावृत्ति आदि से शास्त्रों के स्वाध्याय में तल्लीन रहना। ६. ध्यान-योग की प्रणालिका से बाह्य शुद्धि पूर्वक मनोनिग्रह करते हुए, निर्विकल्प समाधि शुक्लध्यान की ओर प्रगति करना। १०. सेवा-निरभिमानी बनकर तीर्थ एवं तीर्थोपासकों की सेवाशुश्रूषा में संलग्न रहना । शासन की सेवा एवं प्रभावना के लिये सर्वदा कटिबद्ध रहना। यश-कीर्ति से दूर रहना । ११. परीषह - साधना काल में जो भी अनुलोम या प्रतिलोम परीषह/उपसर्ग/कष्ट आदि को तितिक्षा पूर्वक सहन करते हुए संयम को उज्ज्वल बनाना । १२ समिति --संयम-पथ को विशुद्ध बनाने के लिये अष्ट प्रवचन माता-५ समिति एवं ३ गुप्ति का विवेक पूर्वक पालन करना और भाषा-संयम रखते हुए केवल उपदेश देना एवं आदेशात्मक वाणी का पूर्णतः परिहार करना । १३. भावना-"सवि जीव करू शासन रसी" जैसी उच्चतम विचार-सरणि रखते हए मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, अनित्यादि बारह भावनाओं का सतत चिन्तन करना। १४. विहार-गुरु-वृद्ध-ग्लान सेवा के अतिरिक्त सर्वदा अप्रतिबद्ध विहार, भ्रमण करना। १५. निवास-निर्जन स्थानों-नगर के बाहर वनों, उद्यानों में रहना। जन सम्पर्क एवं कोलाहल के स्थानों से दूर रहना। १६ मार्ग-सर्वज्ञ वाणी पर अटूट विश्वास निष्ठा रखते हुए उत्सर्ग मार्ग पर चलना । कदाचित् कारणवश अपवाद का अवलंबन लेना पड़े तो तत्काल ही प्रायश्चित्त द्वारा विशुद्धि कर लेना। आचार सामान्यतः श्रमणों की दो कोटि मानी गई है : १. जिनकल्प, २. स्थविरकल्प । जिनकल्पी पूर्णतः अचेलक एवं करपात्री होते हैं। जिनकल्प मार्ग कठिनतम एवं उत्कृष्टतम होने के कारण वर्तमान में विच्छिन्न सा है । स्थविरकल्पी मुनि आचारांग एवं कल्पसूत्रादि के अनुसार कम से कम एक और अधिक से अधिक तीन वस्त्र एवं पात्र रखता था। नगर-निवास की प्रक्रिया का प्रारम्भ होने पर साधु के लिये १४ वस्त्रों की मर्यादा पूर्वाचार्यों ने निर्धारित कर दी। नगर-निवास, अत्यधिक जन-सम्पर्क एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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