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________________ २०० २. बकुश ३. कुशील ४. निर्ग्रन्थ - महोपाध्याय विनय सागर अर्थात् निस्सारधान्य के समान इनका जीवन निःसार होता है । व्रतों का पालन करते हुए भी शरीर और उपकरणों पर ममत्व होने के कारण उन्हीं को संस्कारित करने वाला, सिद्धि तथा यश-प्रतिष्ठा का अभिलाषी, सुखशील तथा शबल अतिचार दोषों से युक्त । इसके दो भेद हैं : --प्रतिसेवना कुशील और कषायकुशील । प्रतिसेवना - इन्द्रियों का वशवर्ती होने से उत्तर गुणों की विराधनामूलक प्रबृत्ति करने वाला । कषाय - तीव्र कषाय से रहित होकर भी मन्द कषायों के जाने वाला | वशीभूत हो सर्वज्ञता न होने पर भी जिसमें रागादि का अत्यन्त अभाव हो और अन्तर्मुहूर्त के बाद ही सर्वज्ञता प्रकट होने वाली हो । जिसमें सर्वज्ञता प्रकट हो गई हो । ५. स्नातक उक्त पाँच भेदों में प्रारम्भ के तीन भेद व्यावहारिक श्रमण के बोधक हैं और शेष दो तात्त्विक श्रमण के । अतः अन्तर्दृष्टि से, आत्मिक विशुद्धि की दृष्टि से निर्ग्रन्थ एवं स्नातक भेद ही उपादेय हैं । श्रमण का धर्म : उसके श्रमण पूर्णतः आस्रवादि का प्रत्याख्यान करता है अतः वह सर्व विरति कहलाता है । 'मुख्य-मुख्य धर्म हैं : -- १. महाव्रत - पाँच महाव्रतों-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह का उनकी पच्चीस भावनाओं के साथ सम्यक्तया त्रिकरण- त्रियोग के साथ पालन करता है । फलतः वह अनास्रवी, अनारंभी और अनासक्त हो जाता है और संवरोन्मुखी बनकर निर्जरक बनता जाता है । २. प्रतिक्रमण - उपयोग / विवेक पूर्वक महाव्रतों का पालन करते हुए कदाचित् अतिचार / दोष लग जाते हैं, उनपर तत्काल या प्रातः - सायं विचार कर प्रायश्चित्त करना । अर्थात् उभयकाल प्रतिक्रमण के माध्यम से उन दोषों की शुद्धि करना । ३. सामायिक - प्रतिक्षण समभाव; उपशम, शान्ति, क्षमा-भाव से निर्वैर एवं निष्क्रोध रहते हुए संयम गुणों की वृद्धि करना / कषायादि अन्तर्शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना । Jain Education International ४. चारित्र - सामायिक और छेदोपस्थापन में रहते हुए, अप्रमत्त होकर परिहार विशुद्धि और सूक्ष्म सम्पराय की प्रगति करते हुए यथाख्यात की प्राप्ति करने का प्रयत्न करना । ५. इन्द्रिय- दमन -- पाँचों इन्द्रियों और उसके २३ विषयों / विकारों पर विजय प्राप्त करना । ६. व्यवहार - गीतार्थ बनकर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार व्यवहार / व्यवस्था करना और निर्मायी तथा निश्छल आचरण करना । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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