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________________ २०२ महोपाध्याय विनयसागर दुष्काल आदि अनेक कारणों और व्यवधानों ने शास्त्रीय साधुमार्ग पर प्रबल कुठाराघात किया। इसी के फलस्वरूप शिथिलाचार और अपवाद के आलंबन ने साधु-चर्या को खोखला बना दिया। भेद विज्ञानधारक साधक की वह साधना विलुप्त होती चली गई और रह गई केवल परम्परा और चिह्न । वस्तुतः आत्मसाधक के लिये शिथिलाचार, अपवाद का आलंबन, सर्वज्ञ वाणी के स्थान पर परम्परा एवं वेष का महत्त्व हेय है, त्याग करने योग्य है।। निष्कर्ष यह है, श्रमण भगवान् महावीर के प्रस्थापित तीर्थ/शासन का प्रमुख अंग श्रमण/निर्ग्रन्थ है । आत्म-साधक मुमुक्षु अनगार यदि शास्त्रीय श्रमण के अर्थ के अनुसार अपने जीवन को ढालते हुए, उक्त श्रमण-धर्म का परिपूर्णतया सम्यक् प्रकार से पालन करता है तो वह प्रभु महावीर का सच्चा श्रमण है, महावीर का अधिकारी है। श्रमण-धर्म का पालन कर वह निश्चयतः निष्पाप, विशुद्धचेता, इन्द्रियजेता बनकर आत्मा की विशुद्धतम स्वाभाविक दशा को प्राप्त कर लेता है, और सच्चा सद्गुरु बन जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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