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________________ पउमचरियं के हिन्दी अनुवाद में कतिपय त्रुटियाँ 'इसके पश्चात् युद्ध में वीर दशमुख (रावण) ने यक्षभटों के द्वारा चक्र की भाँति घुमायी गई सम्पूर्ण राक्षसों की सेना को देखा। रावण यज्ञ करते हुये मरुत से पूछता है-'तुमने कौन-सा कार्य आरम्भ किया है ? नाना प्रकार के पशु किस लिये बँधे हैं ? ये सभी बाह्मण यहाँ किसलिये आये हैं ? इसके अनन्तर यह गाथा आती है संवत्तएण भणिओ विप्पेण किं न याणसे जन्नं । मरुय नरिन्देण कयं परलोयत्थे महाधम्म ॥११।७१ इसका अनुवाद इस प्रकार किया गया है "यज्ञ का संचालन करने वाले ब्राह्मण ने कहा कि क्या तुम नहीं जानते कि मरुत राजा ने परलोक के लिये महान् धर्मप्रदायी ऐसा यह यज्ञ शुरू किया है।" यहाँ 'संवत्तअ' का अर्थ 'यज्ञ का संचालन करने वाला' नहीं है। मरुत-यज्ञध्वंस का प्रकरण वाल्मीकि-कत रामायण में भी है। उत्तरकाण्ड के अट्ठारहवें सर्ग के अनुसार मरुत का उक्त यज्ञ बृहस्पति के भाई संवर्त ने कराया था। इस पुराण-प्रसिद्ध घटना का वर्णन रामायण में इस प्रकार है संवर्तो नाम ब्रह्मर्षिः साक्षाद् भ्राता बृहस्पतेः । याजयामास धर्मज्ञः सर्वदेव गणैर्व तः । वा० रा० उ० का० १८०३ यज्ञविध्वंसक रावण से युद्ध करने के लिये समुद्यत मरुत को संवर्त ने मना कर दिया था रणाय निर्ययौ क्रद्धः संवों मार्गमावणोत् । सोऽब्रवीत् स्नेहसंयुक्तं मरुतं तं महानृषिः ।। १८।१५ महाभारत के 'आश्वमेधिक पर्व' में भी संवर्त के द्वारा मरुत का यज्ञ सम्पन्न कराये जाने का सविस्तार वर्णन है। अतः प्रस्तुत गाथा में प्रयुक्त 'संवत्तअ' शब्द वाल्मीकि कृत रामायण के इसी प्रसंग से सम्बद्ध बृहस्पति के भाई संवर्त का वाचक है। 'संवट्टएण भणिओ विप्पेण' का अर्थ होगा-संवर्तक नामक ब्राह्मण के द्वारा कहा गया। 'मनोरमा परिणयन प्रकरण' में कहा गया है कि जब रावण ने अपनी पुत्री मनोरमा के विवाह का विचार किया तब मन्त्रियों ने मथुरा के राजा हरिवाहन के पुत्र मधुकुमार को कन्या देने का प्रस्ताव रखा। इसी बीच संयोगवश हरिवाहन अपने पुत्र के साथ रावण-सभा में आ पहुँचा । रावण मधुकुमार को देखकर सन्तुष्ट हो गया। इसके पश्चात् आने वाली यह गाथा देखिये हरिवाहणस्स मंती भणइ तओ इय पहु निसामेहि । एयस्स सूलरयणं दिन्नं असुरेण तुटेणं ॥ १२॥६ इस गाथा का अनुवाद इस प्रकार दिया गया है-"तब हरिवाहन को मन्त्रियों ने इस प्रकार कहा-हे प्रभो ! आप सुनें । तुष्ट असुर रावण ने इस मधुकुमार को एक शूल-रत्न दिया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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