SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विश्वनाथ पाठक मँडराते रहते थे। 'उक्कइफुडदुग्गहा' की व्याख्या इस प्रकार होगी-उत्कटैः प्रबलैरर्थाद् बलवद्भिः शत्रुभिः स्फुटतया दुर्ग्रहाः स्पष्टदुर्जेयाः अर्थात् प्रबल शत्रुओं के द्वारा कठिनाई से जीतने योग्य । 'तवणायवलियरयणा' इस पद में 'लिय' शब्द के अर्थ पर विचार कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है। इस शब्द का प्रयोग गाथासप्तशती की निम्नलिखित गाथा में उपलब्ध होता है-- थोरंसुएहिं रुण्णं सवत्तिवग्गेण पुप्फवइआए। भुअसिहरं पइणो पेछि ऊण सिरलग्ग तुप्पलिअं ॥५२८ ॥ टीकाकार गङ्गाधर ने 'लिअ' का अर्थ इस प्रकार दिया है—“तुप्पं वर्णघतं तेन लिप्तं तुप्पलिअं।" 'प्राकृतसर्वस्व' और 'पाइअसद्दमहण्णव' भी इस अर्थ का समर्थन करते हैं । अतः 'तवणायवलियरयणा' की संस्कृत छाया 'तपनातपलिप्तरत्नाः' होगा, इसकी व्याख्या इस प्रकार होगी _ 'तपनस्य सूर्यस्य आतपेन लिप्तानि व्याप्तानि अनुरञ्जितानि वा रत्नानि येषु' अर्थात् जिनमें सूर्य के प्रकाश से रत्न अनुरंजित होते रहते थे या चमकते रहते थे। इस सम्पूर्ण गाथा का अनुवाद यह होना चाहिये रविराक्षस के पुत्रों ने भी ऐसे सन्निवेश बसाये जिन में चारों ओर सुन्दर मेघ उत्पन्न होते रहते थे (या छाये रहते थे) जो प्रबल शत्रुओं के द्वारा स्पष्टतया दुर्ग्राह्य थे और जिन में सूर्य की किरणों से रत्न चमकते रहते थे। _ 'यदि तवणायवलियरयणां--इस पाठ को अशुद्ध मानें और इसके स्थान पर 'तवणीयवलियरयणा'—यह पाठ स्वीकार करें तो व्याख्या इस प्रकार करनी पड़ेगी 'तपनीयेषु सुवर्णेषु वलितानि खचितानि रत्नानि येषु । अर्थात् जिन में सुवर्णों के भीतर रत्न जड़े थे। 'दशमुखपुरी प्रवेश' नामक उद्देश में यह गाथा द्रष्टव्य है अह रक्खसाण सेन्नं चक्कावत्तं व भामियं सहसा । जक्खभडेसु समत्थं दिळं चिय दहमुहेण रणे ।। ८।९९ इसका अनुवाद इस प्रकार किया गया है "इसके अनन्तर सहसा अपने सैन्य को चक्र की भाँति घुमाकर दशमुख उसे रण भूमि में यक्ष सुभटों के समक्ष ले आया।' यह अर्थ ठीक नहीं है क्योंकि मूल पाठ में देखना' (दिठ्ठ) क्रिया प्रयुक्त है 'ले आना' नहीं। प्रसंगानुसार इसमें यक्षों के द्वारा राक्षसवाहिनी के पीड़ित हो जाने का वर्णन है । अतः इस गाथा का उपयुक्त अर्थ यह हो सकता है अन्वय-अह दहमुहभडेण रणे जक्खभडेसु समत्थं चिय रक्खसाण सेन्नं, चक्कावत्तं व सहसा भामियं दिटुं। यहाँ 'जक्खभडेसु' में विद्यमान सप्तमी, तृतीया के अर्थ में प्रयुक्त है द्वितीयातृतीययोः सप्तमी-हैमशब्दानुशासन ८।२।१३५ - अब सम्पूर्ण गाथा का अर्थ इस प्रकार किया जा सकता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy