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________________ विश्वनाथ पाठक है।" यहाँ असुर का अर्थ रावण किया गया है और कहा गया है कि असुर अर्थात् रावण ने मधुकुमार को शूल-रत्न दिया था। पुनः मधुकुमार-पूर्वभव प्रकरण के प्रारम्भ में आनेवाली गाथा इस प्रकार है एयन्तरम्मि पुच्छइ गणनाहं सेणिओ कयपणामो। दिन्नं तिसूलरयणं केण निमित्तेण असुरेणं ।।१२।९ इसके अनुवाद में भी असुर शब्द का अर्थ रावण दिया गया है, अनुवाद द्रष्टव्य है "इसके पश्चात् श्रेणिक ने प्रणाम करके गणनाथ गौतम से पूछा कि असुर रावण ने त्रिशूल-रत्न क्यों दिया था।" अब विचारणीय यह है कि क्या वास्तव में रावण ने मधुकुमार को त्रिशूल दिया था ? इस प्रश्न का उत्तर 'मधुकुमार पूर्वभव' प्रकरण की निम्नलिखित कथा में विद्यमान है 'प्रभव और सुमित्र दो मित्र थे। सुमित्र की पत्नी को देखकर प्रभव मोहित हो गया। यह बात जानने पर सुमित्र ने अपनी पत्नी वनमाला को प्रभव के घर भेज दिया। इस घटना से प्रभावित होकर प्रभव ने उसे लौटा दिया तथा ग्लानिवश कृपाण से अपना शिर काटने का प्रयत्न किया, परन्तु उसी समय वहीं छिपे सुमित्र ने हाथ पकड़ लिया। समझा-बुझाकर उपशान्त किया। कालान्तर में सुमित्र ने प्रव्रज्या-ग्रहण कर लिया और वह मर कर ईशानकल्पवासी देव हुआ। वहाँ से च्युत होकर हरिवाहन-पुत्र मधुकुमार के रूप में उत्पन्न हुआ। उधर मिथ्यात्व-मोहित-मति प्रभव मरकर भवप्रवाह में बहता हुआ अन्त में भवनपति चमर के रूप में उत्पन्न हुआ। चमर ने अवधिज्ञान से अपने पूर्वभव के मित्र सुमित्र को मधुकुमार के शरीर में पहचान लिया और पूर्वोपकार के बदले उसे त्रिशूलरत्न प्रदान किया। इसका वर्णन उसी प्रकरण में इस प्रकार आया है-- काऊण समणेधम्म सणियाणं तत्थ चेव कालगओ। जाओ भवणाहिवई चमर कुमारो महिड्ढीओ ॥ १२॥३३ अवहिविसएण मित्तं नाऊण पुराकयं च उवयारं । महुरायस्स य गन्तु तिसूलरयणं पणामेइ ।। १२।३४ आश्चर्य तो यह है कि उसी प्रकरण में शूल-प्राप्ति की पूरी कथा का स्पष्ट उल्लेख होने पर भी अनुवादक ने चमर के द्वारा मधुकुमार को शूल दिये जाने की घटना पर ध्यान नहीं दिया और रावण द्वारा त्रिशूल दिये जाने की कल्पना कर ली । हो सकता है, उन्होंने असुर को राक्षस का पर्याय समझने की भूल की हो । वस्तुतः दोनों भिन्न-भिन्न जातियाँ हैं। वेदों में असुर शब्द देव-वाचक है । अमरकोश में असुरों और राक्षसों को पृथक्-पृथक् श्रेणियों में स्थान दिया गया है। पाइयसद्दमहण्णव में असुर का अर्थ भवनपति देव लिखा है। पउमचरियं में चमर के लिये भवनपति और असुर दोनों शब्दों के प्रयोग मिलते हैं क्योंकि असुर शब्द देव वाचकहै । कविराज स्वयंभूवदेव ने अपभ्रंश महाकाव्य पउमचरियं में चमर को अमर (देव) कहा है १. अनुवादक ने यहाँ 'समण' का अर्थ श्रावक किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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