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________________ ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जैन भवगम्य है । आत्मा का पूर्ण साक्षात्कार ही निर्वाण का पूर्ण साक्षात्कार है। आत्मा के स्वभाव की प्राप्ति का या निर्वाण के लाभ का साधन भी आत्मा से बाहर नहीं है। जो कोई स्वहितगवेपी अपने आत्मा को स्याद्वाद नय के द्वारा कथंचित् अस्तिरूप, कथंचित् नास्तिरूप समझता है वही आत्मा का कुछ उपरी ज्ञान प्राप्त करता है । आत्मा अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा अस्तिरूप है, उस समय यही अपना आत्मा परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल व परभाव की अपेक्षा नास्तिरूप है । इस अपने आत्मा में अनंत गुणपर्यायों का अखंडत्वरूप द्रव्य है, असंख्यात प्रदेश मात्र क्षेत्र है, समय समय शुद्ध परिणमनरूप काल है, शुद्ध ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य, आनन्दादि रूप भाव है-इन चारों से कभी भी शून्य नहीं होता हैं ऐसा सतरूप आत्मा पदार्थ हैं। इस अपने आत्मा में अनंत अन्य आत्माओं का, परमाणु व स्कंधरूप सर्व प्रकार के सूक्ष्म और स्थूल पुद्गलों का, धर्मास्तिकाय का, अधर्मास्तिकाय का, आकाश का तथा असंख्यात कालाणुओं का द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव नही है-यह आत्मा अपने द्रव्यादि चतुष्टय के सिवाय सर्व अन्य पदार्थों के द्रव्यादि चतुष्टय से शून्य है-रहित है—इसी से यह आत्मा अस्ति नास्तिरूप है। इस तरह का वास्तविक ज्ञान जब आत्मा की बुद्धि में झलकता है तब यही अटल श्रद्धापूर्वक ज्ञान हो जाता है कि इस अपने आत्मा में न औदारिक, न वैक्रिय, न आहारक, न तैजस, न कार्मण किसी भी शरीर का सम्बन्ध है, न इस आत्मा में आठ कर्मजनित कोई विकार हैं, न इस में अज्ञान है, न मोह है, न क्रोधादि कषाय है, न क्षणिक इंद्रियसुख व दुःख का अनुभव है, न इस में खंडरूप क्रमवर्ती ज्ञान है । यह आत्मा शुद्ध स्फटिक रत्नवत् या पूर्ण विकसित सूर्यवत् या नि:कलंक पूर्ण चंद्रवत् या अक्षोभित निश्चल निर्मल क्षीरसमुद्रवत् एक अपूर्व अनुपम द्रव्य है । हरएक आत्मा का स्वभाव ऐसा ही है-जैसा मेरे आत्मा का स्वभाव है ऐसा ही हरएक सत्पर्यायरूप आत्मा का स्वभाव है। संसार के व्यवहार में कर्मसंयोग में लिप्त वह आत्मा चाहें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वृक्षादि एकेन्द्रिय शरीर में हो, चाहे लट, पिपीलिका, भ्रमरादि विकलत्रय त्रस के शरीर में हो, चाहे गो, महिष, मृग, सिंह, मयूर, कपोत, मत्स्यादि पंचेन्द्रिय पशुओं के शरीर में हो, चाहे अनार्य या आर्य मानवों के शरीर में हो, चाहे नारकियों के और देवों के शरीर में हो; परंतु स्वभाव हरएक आत्मा का वैसा ही शुद्ध निर्विकार है जैसा मेरे आत्मा का है। यही निश्चय नय से या भूतार्थदृष्टि से या सत्यार्थरूप से आत्मा द्रव्य का उपरी ज्ञान है। शताब्दि ग्रंथ] .:१४३:. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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