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________________ जैन धर्म की विशालता जब कोई आत्मप्रेमी निर्वाणगवेपी मैं शुद्धात्मा ही हूं, अथ रूप नहीं हूं इस श्रद्धा और ज्ञान सहित अपने ज्ञानोपयोग को पांच इन्द्रियों के भीतर जाने से रोकता है और संकल्पविकल्परूप मनद्वारा चिन्तवन से रोकता है और उस उपयोग को अपने ही निश्चित शुद्धात्मा की ओर थिर करता है- - तब स्वानुभव जागृत होता है या आत्मध्यान प्रगट होता है । उसी समय अनुपम आत्मिक रस का स्वाद आता है, अतीन्द्रिय आनन्द का वेदन होता है | वास्तविक आत्मा का स्वभाव अनुभवगोचर होता है - यही स्वानुभव आत्मिक धर्म है—यही मोक्षमार्ग है- यही निर्वाणमार्ग है- यही निश्चय सम्यग्दर्शन, निश्चय सम्यग् - ज्ञान व निश्चय सम्यकूचारित्ररूप रत्नत्रय धर्म है - यह जैनधर्म है । इसी स्वानुभव के अभ्यास से ही जितनी २ वीतरागता बढ़ती है उतनी २ अधिक मात्रा में आत्मा की कर्ममल से शुद्धि होती है। जैसे सुवर्ण के मल को अग्नि की ज्वाला जला देती है वैसे आत्मा के साथ संयोगप्राप्त कर्ममल को स्वानुभव या आत्मध्यान की अग्नि जला देती है । यही वास्तविक तप है, इसीसे कर्मों के आश्रव का निरोधरूप संवर होता है व इसी से पूर्वबद्ध कम की निर्जरा होती है । स्वसमाधि या निर्वाण का अपूर्ण साक्षात्कार निर्वाण का मार्ग है व स्वसमाधि की अनंतकाल के लिये थिरता या निर्वाण का पूर्ण साक्षात्कार निर्वाण है - जैसे दोयज का चंद्रमा स्वयं पूर्णमासी का चंद्रमा हो जाता है वैसे ही स्वानुभव में रमण करनेवाला आत्मा स्वयं ही परमात्मा हो जाता है । यही जैन धर्म है, सर्व द्वादशांगी वाणी का यही सार है । स्वानुभव विना बाहरी साधु व गृहस्थ की सर्व क्रियाएं निर्वाणमार्ग नहीं हैं। साधु की व गृहस्थ की बाहरी सर्व मन, वचन, काय की उनही क्रियाओं को मोक्षमार्ग में सहकारी होने के कारण से मोक्षमार्ग कहा जाता है । उक्त क्रियाओं के द्वारा मन, वचन, काय संसार के मोह से विरक्त होकर स्वानुभव के लाभ में सहायक हों । आत्मध्यान या स्वानुभव को लक्ष्य में लेकर ही सर्व जैन धर्म का चारित्र संगठित है । जब निश्चयदृष्टि से सर्व आत्माओं को समान शुद्ध वीतराग ज्ञानानन्दमय देखा जाता है तब राग, द्वेष, मोह स्वयं विलय हो जाते हैं और सामायिक का भाव जागृत हो जाता है । यही साम्यभाव श्रावकों का सामायिक शिक्षाव्रत है, यही साधुओं का सामायिक चारित्र है । यही परम अहिंसा धर्म है, राग, द्वेष, मोहभाव आत्मा के स्वभाव के घातक हैं- इन रागादि का न होना ही भाव - अहिंसा धर्म है 1 • १४४ :• Jain Education International For Private & Personal Use Only [ श्री आत्मारामजी www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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