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________________ विशालता जैनधर्मकीला ----- - ( लेखक-ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जैन ) जैन धर्म आत्मा के रागद्वेषादि शत्रुओं के विजय करने का और स्वभावप्राप्तिरूप निर्वाण के साक्षात्कार करने का एक अनुपम-अद्वितीय मार्ग है । निर्वाण भी आत्मा का स्वभाव है-निर्वाण का मार्ग भी आत्मा का स्वभाव है। आत्मा का सर्व अनात्मिक संयोगो से पृथक् होकर अपने ही शुद्ध व श्रेष्ठ स्वभाव में बाधा रहित सदा तिष्ठने को निर्वाण कहते है। निर्वाण आत्मा का ही स्वभाव है । आत्मा सत् पदार्थ है-न कभी जन्मता है, न कभी नाश होता है-अमूर्तिक है-स्पर्श, रस, गंध, वर्ण से रहित है-ज्ञानस्वरूप हैवीतरागस्वरूप है-आनन्दस्वरूप है । यही निर्वाण का स्वरूप है-नामभेद है, वस्तुतः आत्मा ही निर्वाण है, निर्वाण ही आत्मा है । आत्मा का स्वभाव यद्यपि मन से चिन्तवन किया जाता है, वचनों से कहा जाता है तथापि वह स्वभाव मन व वचन से अगोचर हैमात्र स्वानुभावगम्य है । आत्मा का क्या वास्तविक स्वभाव है सो तब ही जाना जाता है जब आत्मा मन, वचन, काया के सर्व प्रपंचों से हटकर आत्मा के द्वारा आत्मा में ही चर्या करता हैं । अंगूर की स्वाभाविक मिष्टता का ज्ञान अंगूर के चिन्तवन से व अंगूर के वर्णन करने से नही हो सक्ता-जिस समय जिह्वा इन्द्रियद्वारा ज्ञानोपयोग को सई अन्य ज्ञेय पदार्थों से रोक कर मात्र अंगूर के रस ज्ञान लेने में एकता से जोड़ा जाता है तब ही अंगूर के भीतर जिस प्रकार की मिष्टता है उसका ठीक २ ज्ञान होता है। स्वसंवेदन ज्ञान या स्वानुभव ही आत्मा को जान सक्ता है । जैसे आत्मा स्वानुभवगम्य है वैसे निर्वाण भी स्वानु [ श्री आत्मारामजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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