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________________ श्री. मथुरदास जैन आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरत् " के सिद्धांत का पूर्णतया पालन है । ऐसे जैन धर्म के पालन का सुअवसर प्राप्त होना प्राप्त होनेवाले व्यक्ति का सौभाग्य है वे व्यक्ति धन्य हैं जिन्हें इस वीतराग वाणी से अपने आप को पवित्र करने का मौका प्राप्त हुआ है । प्यारे साधर्मी भाईयो ! आप को यह विस्मरण न करना चाहिये कि इस पवित्र जिन धर्म के पालन का सुअवसर मिलना आप के चिरन्तन पुण्य का ही परिणाम है । इस चिन्तामणि रत्न को पाकर इससे लाभ उठाने का अवसर चूकाना न चाहिये । 66 "" बन्धुओ ! यह प्रश्न प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में स्वभाव से ही उठ सकता है कि जब जैन धर्म की इतनी महत्ता है तो इसका प्रचार विश्वव्यापी क्यों नहीं है ? जब कि अन्य धर्मानुयायियों की संख्या दिन प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त हो रही है तब जैनियों की संख्या के इस तेज़ी के साथ घटने का क्या कारण है ? इस के उत्तर में यही कहना पर्याप्त होगा कि आज सर्वत्र जैन धर्म के प्रचार का न होना जैन धर्म के सिद्धान्तों की महानता में किसी प्रकार की कमी सूचित नहीं कर सकता । यह तो धर्म के अनुयायियों का कर्तव्य है कि वे उस धर्म का प्रचार करते हुए परोपकारद्वारा अपनी तथा दूसरों की आत्मा का कल्याण करें । शास्त्रकारों ने भी कहा है कि " न धर्मो धार्मिकैर्विना अर्थात् दुनिया में कोई भी धर्म विना धार्मिकों के टिक नहीं सकता । आज जैन धर्म के विकास की तरफ जब हम दृष्टि डालते हैं तब हमें यही प्रतीत होता है कि इस के विकास की गति इतनी मन्द है कि वह न होने के बराबर ही है । हरएक धर्म उसी समय अपने विकास में समर्थ हो सकता है जब कि उसके अनुयायियों में ज्यादा से ज्यादा शिक्षा का प्रचार हो । विकसित जाति एवं धर्मों की प्रगति पर जब हम ध्यान देते हैं तो हमें यही मालूम देता है कि पहिले उन्हों ने अपने अन्दर शिक्षा का प्रचार किया है । मुसलमानों को देखिये । भारतवर्ष में सैकड़ों की तादाद में उनके स्कूल और कॉलेज हैं । मुस्लिम यूनीव्हर्सिटी अलीगढ़ ने इसके प्रचारकार्य में जितनी मदद दी है वह साक्षर भारतियों से अविदित नही है । इसी तरह आर्यसमाजियों के सैकड़ों स्कूल, कॉलेज, गुरुकुल, उपदेशक - विद्यालय, अनाथालय तथा आर्यसमाज संस्थायें दिन ब दिन इस धर्म के प्रचारकार्य में प्रयत्नशील हो रही हैं । हम जब जैन समाज की शिक्षा पर दृष्टि डालते हैं तो हमें विदित होता है कि यहां एक कारण है जिस की कमी से हम अपनी उन्नति नहीं कर सके हैं। शिक्षारूप पवन के अभाव का ही परिणाम है कि जैन धर्मरूप सौरभमय पुष्प की महक देश विदेश में नहीं फैल सकी है। विदेश की बात तो दूर जाने दीजिए, भारतवर्ष के अन्दर भी अभीतक ऐसे पर्याप्त विद्वान हैं जो जैन धर्म को शताब्दि ग्रंथ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only .: १२७ : www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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