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________________ जैन धर्म का महत्त्व और उसकी उन्नति के साधन अर्थात् जो मनुष्य आशा के दास हैं वे संसार के दास हैं । जहां भी उन्हें अपनी आशा की पूर्ति के साधन नज़र आते हैं वहां ही वे सेवावृत्ति करने लगते हैं, लेकिन आशा जिनकी दासी है अर्थात् जिन्हों ने अपनी इच्छाओं को अपने वश में करलिया है उन व्यक्तियों का सारा संसार ही दास हो जाता है । इस तरह विचार करने पर हमें मालूम होता है कि संसार के सुख मनुष्य को अन्त में दुःख में डालनेवाले ही होते हैं। जहां अनाकुलता तथा तृष्णा का अभाव है वहां ही सच्चा सुख है । यह अनाकुलता हमें उसी समय प्राप्त हो सकती जबकि हम निवृत्ति मार्ग का अवलम्बन करें। एक धनवान् व्यक्ति और एक साधु महात्मा को ले लीजिए। इन दोंनो में सुख का बड़ा भारी अन्तर है । धनवान् व्यक्ति धन, धान्य, पुत्र, पौत्रादि सम्पन्न होने पर भी अपनी तृष्णा से धनरक्षा और वृद्धि की चिन्ता से दुःखी है । साधु अपनी आत्मा का चिन्तवन करते हुए संसार की अस्थिरता को जानकर अपने निवृत्ति मार्ग पर आरूढ होने को सराहता है । कविवर दौलतरामजी ने इसी आशय को इन शब्दों में प्रगट किया है। आतम को हित है सुख सो सुख आकुलता विन कहिये । आकुलता शिवमांहि नतातें शिवमग लाग्यो चहिये ॥ उपर्युक्त विवेचन से हम इसी निष्कर्ष पर आते हैं कि सच्चा सुख मोक्ष में ही है और उसकी प्राप्ति का मार्ग मुख्यतः निवृत्ति मार्ग ही है । इस सच्चे सुख का वर्णन जिस धर्म में जितना ही अधिक होगा धर्मों की उत्तमता की कसौटी पर वही धर्म ज्यादा महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगा। जैन धर्म के सिद्धान्तों पर जब हम दृष्टि डालते हैं तो हमें प्रतीत होता है कि इस धर्म के प्रत्येक छोटे बड़े सिद्धान्त में स्वपरहित की भावना उसी प्रकार कूट कूट कर भरी है जिस तरह से कि शक्कर में सर्वत्र मिठास होती है । इसके अहिंसावाद को ले लीजिए । जितना सूक्ष्म विवेचन जैन धर्म में अहिंसा का किया है वैसा दूसरे धर्मों में कहीं पर भी नहीं मिलता । दूसरे धर्मों में अहिंसा तत्त्व को उत्तम मानते हुए भी उसका अमल उतना उत्तम नहीं है जितना कि जैनधर्म में है। वैदिकी हिंसा को हिंसा न मानने या अन्य तिर्यञ्चों की अपने आहारादि के निमित्त किये जानेवाली हिंसा को हिंसा न समझनेवाले धर्मों में हिंसा का द्वार इतनी दृढ़ता से बन्द नहीं किया है जितना कि जैन धर्म में किया है । जैन धर्म में रात्रिभोजन न करना, पानी छानकर पीना, मद्य, मांस, मधु का सेवन न करना आदि जो मोटे मोटे प्रत्येक जैन व्यक्ति के लिए अनिवार्य नियम हैं वे इस बात के लिए पूर्ण रूप से साक्षी हैं कि जैन धर्म में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक छोटे बड़े सभी जीवों की रक्षा का पूर्णरूप से आदेश है। .:१२६. [ श्री आत्मारामजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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