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________________ जैन धर्म का महत्त्व और उसकी उन्नति के साधन वेद या हिन्दु धर्म की एक शाखा ही मान रहे हैं तथा जैन दर्शन के गहन सिद्धान्त स्याद्वाद को संशयवाद माने बैठे हैं। जब प्रसिद्ध विद्वान् तक स्यात् शब्द को शायद का बिगड़ा रूप बतला कर स्याद्वाद की शायदवाद यानी संदिग्धवाद रूप समालोचना करते हैं तो हम इस से स्वयं इस बात का अच्छी तरह अनुमान लगा सकते हैं कि जैन धर्म के प्रचारकार्य के लिये हमारे प्रयत्न कहांतक प्रशंसनीय हैं । ईसाइयों की बाइबिल तथा अन्य समाजों की धार्मिक पुस्तकें स्वल्प कीमत पर वीसों भाषाओं में प्रकाशित देशविदेश में अपने सिद्धान्तों का प्रचार बड़ी उत्सुकता के साथ कर रही हैं लेकिन जैन धर्म के अभीतक मौलिक ग्रन्थों का भी प्रकाशन पूर्णरूप से नहीं हुआ है । प्रत्येक साक्षर व्यक्ति यह भलीभांति जानता है कि वर्तमान में जिसका जितना अधिक विज्ञापन है उसका उतना ही अधिक नाम है । जैन भाइयों का यह परम कर्त्तव्य है कि वे सब से प्रथम शिक्षा के ऊपर विशेष ध्यान दें । जब समाज में शिक्षित व्यक्तियों की तादाद अच्छी हो जावेगी तब जैन धर्म का विकास कार्य कठिन न होगा । इस में कोई शक नहीं है कि वर्तमान समय में जैन धर्म के अनुयायी अधिकतर वैश्य वर्ण के व्यक्ति ही हैं और वैश्यजाति आम तौर से रोज़गार पेशा है इसीलिए बहुत से जैन भाई यह ख़्याल करलेते हैं कि हमारे बच्चों ने तो दुकान पर ही बैठना है फिर इन्हें अधिक पढ़ने से लाभ ही क्या है ? साधारण पढ़ना लिखना आ गया कि वे अपने बालकों को दुकानों पर बिठा लेते हैं । ऐसे भाइयों को यह विचारना चाहिये कि मनुष्य जीवन का एक मात्र उद्देश्य पैसा कमाना ही नहीं है । पैसा कमाने के साथ आत्मकल्याण करना भी उसका कर्त्तव्य है । अर्थशास्त्रवेत्ताओं का विचार है कि पैसा कमाना उतना कठिन नहीं है जितना कठिन कि उसका संरक्षण और उपयोग है । पैसे के संरक्षण और उचित उपयोग के लिए भी शिक्षा की अत्यन्त आवश्यकता है । इसके साथ ही अपनी आध्यात्मिक उन्नति के लिए आध्यात्मिक विषयों का अध्ययन करना भी मनुष्य का परम कर्त्तव्य है । 1 शिक्षा की उन्नति को जैन समाज के अभ्युत्थान का प्रबल साधन समझते हुए ही परमपूज्य, ज्ञानाम्भोनिधि स्वर्गीय आचार्य श्री विजयानन्दसूरिजी महाराज के हृदय में एक विशाल शिक्षण संस्था खोलने की भावना उदित हुई थी । जैन समाज और खास तोर से पंजाब जैन जनता के सौभाग्य से पूज्यवर स्वर्गीय आचार्यश्रीजी महाराज के पट्टधर विद्वद्वर्य आचार्य श्री विजयवल्लभसूरिजी महाराज ने अपने गुरुवर की भावना को क्रियात्मक रूप देने के लिए श्री आत्मानन्द जैन गुरुकुल पंजाब, गुजरांवाला की स्थापना की थी । आज इस संस्था को चलते हुए लगभग १० वर्ष हो चुके हैं । इस संस्था से पढ़कर निकले हुए कई विद्वान् भिन्न २ संस्थाओं में • १२८ : [ श्री आत्मारामजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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