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________________ श्री. लक्ष्मण रघुनाथ भीडे पूना के आत्मानन्द ग्रन्थालय की वजह से ही मेरे से जिनधर्मानुराधन हो रहा है। मुझे आप के दो महान् ग्रन्थ मिले और सम्यगज्ञान की लब्धि हुई। आप के पट्टधर मुनिश्री विजयबल्लभसूरीश्वरजी के कारन ही मेरी प्रमादवशता दूर होकर मैं हररोज सद्देवदर्शन, सच्छास्त्राध्ययनादि करने लगा और धर्मध्यान में नीरत हुआ। मेरा आर्तध्यान दूर करने में भी आप के शुभ नाम का ग्रन्थालय ही कारन है । इस प्रकार आप की धर्मप्रभावना है। १९२२ की बात है । राष्ट्रीय सभा के विविध प्रचारकार्यों में लगा हुआ मैं छे बरस कर्णाटक में रहा। उसमें से यह दूसरा साल है। बेलगाम जिल्ले के नीपाणी गाम में तब मैं राष्ट्रीयशाला में अङ्ग्रेजी, हिन्दी, सायन्स और धर्मशिक्षा का अध्यापक तरीके रहता था । इस गाम में श्वेताम्बर जैनों की ठीक बस्ती है। जैनधर्म के ग्रन्थों का अच्छा संग्रह भी है । कुछ ग्रन्थ लेकर पढ़ना मैं ने शुरू किया और आत्मारामजी के जैनतत्त्वादर्श तथा अज्ञानतिमिरभास्कर ये दो ग्रन्थ पढ़ने से मेरी सब धार्मिक शङ्काएँ दूर हुईं। जन्म से मैं शाङ्करमत का स्मार्त ब्राह्मण हूँ। तो भी वैष्णवमत का प्रभाव बचपन में मेरे दिल पर होने से क्रियाकाण्ड के साथ२ भजन, कीर्तनादि की अभिरुचि भी मेरे में पेदा हुई । स्नान, सन्ध्या, देवपूजन, स्वाध्याय, देवदर्शन, पुराणश्रवणादि धर्माचार के छ बरस के ज्ञानपूर्वक पालन से मेरी मनःशुद्धि हुई और दृष्टि विशाल हुई । इसी कारन मै ने द्वैत, विशिष्टाद्वैत, शक्तिविशिष्टाद्वैत आदि मताचार्यों के, तथा पारसी, महम्मदी, ईसाई, यहुदी, शिख आदि धर्म संस्थापकों के कुछ ग्रन्थ पढ़े । षड्दर्शन, उपनिषदादि प्राचीन ग्रन्थ भी देखे। कुछ थिऑसॉफिस्ट सज्जनों के सम्बन्ध में आने से पाश्चिमात्य तत्त्वज्ञान के तथा अन्यान्य धर्मग्रन्थ भी वाचने को मिले । सार्वजनिक कार्य की रुचि होने से अनेक समाचार पत्र तथा अन्यान्य ग्रन्थ पढ़ने को मुझे विद्यार्थीदशा से ही आदत है । यह कहने का मतलब यह कि सार्वङ्गिक ज्ञान मैं ने पा लिया था और वह भी धर्माचार के पालन के साथ । इस वाचन से सब दर्शन, धर्म, पन्थ, मत मुझे एकान्तिक लगे। मैं ने सोचा कि इन सब का समन्वय करनेवाला एक ही धर्म हो तो कितना अच्छा होगा? श्रुति, स्मृति, पुराणोक्त सनातन हिन्दूधर्म में यह समन्वय कुछ अंश में दुग्गोचर होता है। लेकिन उसमें भले के साथ बूरे का भी धर्म के नाम पर सङ्ग्रह किया गया है। फिर भी एकान्तिक मतवाले अपनी अपनी खिचड़ी अलग पकाते रहते ही हैं । थिऑसॉफिकल लोग ने इस दृष्टिसे कुछ प्रयत्न किया है । तो भी हरएक धर्मवालों को अपना एकान्तिक आग्रह नहीं छोड़ता। ब्राहमो, शताब्दि ग्रंथ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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