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________________ अर्हन्मतोद्धारक आचार्य आत्मारामजी आर्य, वहेबी आदि नूतन धर्मपन्थ भी तात्त्विक समन्वय करने में असमर्थ हैं। म. गान्धी में ये समन्वयवृत्ति मुझे प्रतीत हुई और १९२१ में मैं आप का चेला बना । लेकिन मेरी तत्त्वज्ञान के समन्वय की तृष्णा नहीं बझी। जब मैं ने आत्मानन्द महाराज के ग्रन्थ देखे और उनके वाचन से जब प्रतीत हुआ कि जैनधर्म के स्याद्वाद या अनेकान्तवाद में द्वैताद्वैत, क्षणिकशाश्वतवाद आदि सभी द्वंद्वों का समन्वय किया है। जब देखा कि रत्नत्रय में ज्ञान, उपासना तथा क्रियाकाण्उ इन तीनों मोक्षमागों की आवश्यकता एकसाथ बतलायी है। और जब मैने पढ़ा कि पञ्चपरमेष्ठी के ध्येयस्वरूप ईश्वर जैनधर्म में होते हुए ईश्वरकर्तत्व का अभाव है तब मैं उस पर लट्ट हो गया और तब से आजतक जिनवाणी पर मेरी श्रद्धा कायम है और कायम रहेगी। मैं चाहता था कि जिनसिद्धान्त के किसी अङ्ग पर आत्मानन्द शताब्दि स्मारकाङ्क के लेख लिखू । जिनशास्त्र का हरएक अङ्ग परिपूर्ण, अप्रतिम और त्रिकालाबाधित मुझे लगता है । लेकिन आत्मानन्द महाराज के संबंध में मेरे जो भाव है उनको ही जाहिर करना मैं ने उचित समझा । और और विद्वान जिनशासन के एकेक अङ्ग पर लेख जरूर भेजेंगे । इसलिये विस्तृत लेख लिखना भी ठीक नहीं । मुझे इस लेख में यही बताना है कि जिनशासन का सर्व संग्राहक होते हुए अतीव शुद्धस्वरूप महाराज साहब के ग्रन्थों से ही मुझे ज्ञात हुआ कि जो स्वरूप एक ही धर्म में पाने की तृष्णा मुझे कईंक वर्षोंसे लगी थी। इसलिये मैं आत्मानन्द महाराज साहब का सदैव ऋणी हूं । जो आनन्द मुझे प्राप्त हुआ सो सभी भव्य जीवों को मिले यही मेरी कामना है । यह आनन्द कोई दे नहीं सकता है । हरएक को यह लेना पड़ेगा । मात्र साधन साहित्य दूसरा दे सकता है-अस्तु । ये साधनसामग्रियाँ आत्मानन्द महाराज ने हमारे लिये उपलब्ध कर दीं। यही महाराज साहेब का हमारे पर उपकार है। आचार्य साहेब का हमारे उपर यह मोटा कर्जा है । हमें आचार्यऋण से मुक्त होना चाहिये । धर्मप्रभावना करना यह हरकोई श्रावक का कर्तव्य है । आत्मानन्द शताब्दि के महोत्सव पर भी धर्मप्रभावना के कुछ स्थायीकार्य होने चाहिए । आचार्य महाराज के पट्टधर विजयवल्लभसूरि महाराज ने आत्मसंवत् शुरू करना, आत्मानन्द जैन सभा स्थापन करना, आत्मानन्द मासपत्रिका चलाना, आत्मानन्दसमाधिमन्दिर बान्धना और जगह जगह पाठशालाएँ खोलना ये पांच प्रतिज्ञाएँ की थीं। पट्टधर आचार्य ने ये प्रतिज्ञाएँ कैसी पूरी की और भव्यजीवगण इन सुविधाओं से कैसा लाभ उठाते हैं सो जैनजनता अच्छी तरह से जानती है । अब कुछ आगे बढ़ना चाहिए । [ श्री आत्मारामजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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