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________________ अहंम्मतीद्धारक आचार्य आत्मारामजी का पूजन मूर्तिपूजा है और मूर्तिपूजा पञ्च महाव्रत का खण्डन करने में कारन होता है यह जो भ्रम फैला हुआ था सो आप ने दूर करके जिनबिम्ब का पूजन मूर्तिपूजा (dिol-worship) नहीं है, ध्येयपूजा (Ide 11- worship) है, यह बात आप ने श्रावकों को समझा दी । आप ने कई चैत्यालयों का जीर्णोद्धार किया, कई जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा की और सङ्गित काव्यमय पूजाएं बनाकर प्रतिमा पूजन में रुचि पैदा की । स्थानकवासी सम्प्रदाय में सद्गुरुभक्ति का जितना महत्त्व देखा जाता है उतना मूर्तिपूजकों में नहीं देखा जाता; लेकिन सद्गुरु तो प्रत्यक्ष सद्देव है । इसलिये आप ने सद्गुरु का स्वरूप कहकर उसकी सेवा का महत्त्व श्रावकों को बताया और स्वयं सद्गुरु बने। आप के पूज्य पट्टधर मुनिश्री विजयवल्लभसूरि महाराज ने आप की समाधि बनाकर सद्गुरुपूजन की सुविधा की। इस प्रकार आप ने सद्देव तथा सद्गुरु के मूर्ति की पूजा ध्येयपूजा की दृष्टि से श्रावकों में फैलाई । आप के पहेले कितनेक मुनिवर भी सच्छास्त्र नहीं पढ़ते थे । इस के कारन जिनागमज्ञ जैनाचार्य और उपाध्याय विरले पाये जाते थे। तो फिर जिनशास्त्रमर्मज्ञ श्रावकश्राविकाओं की बहुत ही त्रुटि थी इस में आश्चर्य क्या ! आप ने बहुत कठिनाइयाँ पार करके स्वयं शास्त्राध्ययन किया और पाठशालाएँ खोलकर सभी के लिये सुविधा कर दी। आप ने बहुत ग्रन्थ लिखे । खण्डनमण्डन पर सभाएँ की और अर्हन्मतप्रचार किया। ___ इस प्रकार सद्देव, सद्गुरु और सच्छास्त्र की पूजा, सेवा तथा अध्ययन-अध्यापन का प्रबन्ध चैत्यालयों, उपाश्रयों और पाठशालाओं के द्वारा करके आप ने समकित की शुद्धि की है। पञ्जाब, राजस्थान तथा गुजरात में जो जिनमन्दिर, उपाश्रय, पाठशालाएँ, ग्रन्थप्रकाशन कार्यालय और समाचार पत्र हैं तथा उनकेद्वारा जैनों में जो सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र का वर्धन हो रहा है सो आप की ही कृपा है। इन साधनों का प्रचार करने के कारन ही आप युगप्रवर्तक माने जाते हैं और इन साधनों के द्वारा अर्हन्मत का प्रचार करने में आप ने सफलता हासल की। इसीलिये आप अर्हन्मतोद्धारक समझे जाते हैं। आप के ये साधन ही ऐसे है कि जो आप के स्वर्गगमन के बाद आप के धर्मप्रचार का कार्य बढ़ाते हुए आप का स्मरण चिरन्तन कर रहे हैं। आप को नहीं देखते हुए भी आप के धर्म प्रचारके साधन से ही जिन हजारों भव्य जीवों को सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई है उनमें से मैं भी एक हूँ । आप के "अज्ञानतिमिरभास्कर" तथा "जैनतत्त्वादर्श" इन दो ग्रन्थराजों को पढ़ने से ही मुझे समकित की लब्धि हुई और हाल में [ श्री आत्मारामजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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