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________________ मन मनोहारक आचार्य आत्मारामजी (ले० लक्ष्मण रघुनाथ भीडे-पूनासिटी ) अर्हन्मत अनाद्यनन्त होने से उसका नाश कभी नहीं होता है। तो भी समकित के अभाव से कालप्रभावानुसार भव्य जीवों में भी उसके बारे में मतमतान्तर हो जाते हैं । मिथ्या अभिप्राय के कारन अर्हन्मत को जब लोग विपरीत प्रकार से मानने लग जाते हैं तब मतोद्धारकों की जरूरत होती है । इसलिये मत-संस्थापक तीर्थङ्कर जैसे अतीत काल में हुए हैं, वर्तमान काल में हो चुके हैं और अनागत काल में होनेवाले हैं और मतप्रचारक सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा सर्व साधु तीनों कालों में होते हैं वैसे ही मतोद्धारक भी हुआ करते हैं । प्रसिद्ध न्यायाम्भोनिधि जैनाचार्य श्रीमद् विजयानंदसूरीश्वरजी महाराज ऐसे मतोद्धारकों में से ही एक है। ___ मतोद्धारक कुछ नई बात नहीं कहते है । और सनातन जैन सिद्धान्त में नई बात क्या कही जा सकती है ? अतीत चोवीस तीर्थङ्करो में पहेले तीर्थङ्कर भगवान ने जो फर्माया सो ही तीनों काल के तीर्थङ्कर, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधु कहा करते हैं। फिर भी लोगों में जिस प्रकार अर्हन्मत को मानने में भ्रम हुआ हो उसी प्रकार किसी तीर्थंकर, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधु के कुछ उपदेश में फरक मालूम होता है। जिन सिद्धान्त त्रिकालाबाधित होने से उसमें तो फरक नहीं है लेकिन भ्रमजन्य मान्यता में फरक होजाता है। यह फरक बड़ा भारी हो तो उसको निकालनेवाला महात्मा युगप्रवर्तक गिना जाता है। ___ श्रीमद् विजयानंदसूरीश्वरजी का अपरनाम आत्मारामजी है क्यों कि आप पहेले स्थानकवासी साधु थे । अपने आत्मारामजी महाराज भी युगप्रवर्तक हैं क्यों कि आप ने श्वेताम्बर जैनों में खास करके पञ्जाब के जैनों में नया युग ही शुरू कर दिया । जिनबिम्ब शताब्दि ग्रंथ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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