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________________ महाविद्यालय का भी मध्यान्ह रहा है। इस सबके पीछे पंडितजीका धर्मशास्त्रका अध्ययन, धर्मशास्त्र का अध्यापन, धर्मशास्त्र का प्रवचन, धर्मशास्त्र पर लेखन, तथा इसका ही चिन्तवन, आदि हैं। अड़सठ वर्ष की वयमें विद्यालयसे सेवानिवृत्त होकर भी उक्त समस्त प्रवृत्तियाँ यथावत् चल रही हैं । यतः विद्यालयके लिए उपयुक्त प्राचार्य नहीं मिला है अतः विद्यालयके अधिष्ठातृत्वके सिवा, शैक्ष्य प्राचार्यों के स्थितीकरणके लिए वे बड़ी कक्षाओंका अध्यापन भी करते हैं । 'एके (धर्मशास्त्र या स्याद्वाद महाविद्ययालय) साथै सब (धर्म, समाज, संघ, साहित्य आदि) सधै'का निदर्शन इनका जीवन है । तुलसीदासके लिए' सियाराम मय सब जग जानी' था, तो इनके लिए भी 'धर्मशास्त्र मय सब जग जानी' है। अतः उन्हें 'करो प्रणाम जोर जग पाणी।" श्रद्धेय पंडितजी नरेन्द्रप्रकाश जैन, जैन इण्टर कालेज, फिरोजाबाद, उ० प्र० आजसे बीस वर्ष पूर्व 'जनसन्देश' में प्रकाशनार्थ 'जैनसमाज और देवमूढ़ता' नामक अपना पहला लेख मैंने श्रद्धेय पंडितजीके पास भेजा था और चाहा था कि उसके ५० रिप्रिंट्स भी मुझे मिल जायें । व्यक्तिगत परिचय न होनेसे लेख छपेगा या नहीं, इस बारेमें तो दुविधा थी ही, फिर रिप्रिंट्स पानेकी क्या उम्मीद हो सकती थी। लेकिन मेरी प्रसन्नताका ठिकाना न रहा, जब चौथे या पाँचवें दिन ही लेखकी स्वीकृतिका पत्र मझे मिला, जिसमें सन्देशके लिए आगे भी बराबर कुछ-न-कुछ लिखते रहनेका स्नेहपूर्ण आग्रह था। उसके कुछ दिन बाद ही सन्देश मिला । उसमें मेरा लेख तो था ही, पंडितजीने उसी सन्दर्भमें अपना सम्पादकीय भी लिखा था। शीर्षक था-'देवमूढ़तासे बचिये । मुझे रिप्रिंट्स भी प्राप्त हुए, मेरे मनमें उस वक्त प्रसन्नताके साथ ही सुखद आश्चर्यके भी भाव थे। आज ऐसे कितने सम्पादक हैं जो नवोदित लेखकोंको इस तरह प्रोत्साहन देते हों? श्रद्धेय पंडितजीसे बादमें "मोरेना विद्यालयका नवोन्मेष : कुछ सुझाव' शीर्षक सन्देशमें प्रकाशित मेरे एक लेखपर स्व० पं० मक्खनलालजी शास्त्रीकी प्रतिक्रियाको लेकर पत्र-व्यवहार हुआ। उन्होंने उस समय मझे वाद-प्रतिवादसे बचनेकी सलाह दी। सोनगढ़ सम्बन्धी आशंकाओं एवं आक्षेपोंके मेरे एक पत्रके उत्तरमें तो उन्होंने जैनसन्देशमें लगातार दो सम्पादकीय लिखे, जिन्हें व्यापक सराहना मिली । सम्पादकीय नोटके साथ उन्होंने मेरे पत्रको भी छाप दिया । अपने नोटमें उन्होंने मेरे दृष्टिकोणको सन्तुलित बताया था। इस सम्बन्धमें अपने एक पत्रमें उन्होंने अपने शिष्यसे प्राप्त टिप्पणीके आधारसे मेरे फल्टनमें हए भाषणोंकी प्रशंसा की थी। मतभेद रखनेवालोंके प्रति भी ऐसा औदार्य आज कितने विद्वानोंमें पाया जाता है। पिछले वर्षों से मेरा उनसे साक्षात्कार अनेक बार हुआ है। उन्हें निकटसे देखने-जाननेके बाद मेरी यह पक्की राय है कि वे किसी गुट या पंथसे बँधे हुए नहीं हैं तथा स्वतन्त्र रूपसे जैसा वे सोचते हैं, उसे व्यक्त करनेमें कभी संकोच नहीं करते । सत्य-प्रतिपादन करने में वह निर्भीक हैं । इस या उस पक्षके लोग क्या कहेंगे, सोचेंगे, इससे वह विचलित या प्रभावित नहीं होते ।। आजतक मेरे किसी पत्रका उत्तर मुझे न मिला हो, ऐसा मुझे स्मरण नहीं है। पत्रोत्तरमें ऐसी तत्परता कम ही देखनेको मिलती है। उनके उत्तर संक्षिप्त किन्तु युक्तियुक्त होते हैं। पत्र पानेवालेको उनसे आत्मीयताकी झलक मिलती है। सबको अपनत्व देना पंडितजीका एक बहुत बड़ा गुण है । -५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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