SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विद्यालयकी इस उत्तम शैक्षणिक उपलब्धिमें पंडितजीका प्रधानाचार्यत्व निश्चित ही धर्म द्रव्य था। इसीलिये वर्णीजी स्यादवाद विद्यालयके प्राण कहकर समाजमें इनका परिचय देते थे। पण्डितजीके प्राचार्यत्वमें स्यादवाद महाविद्यालयसे सन १९३९ में जैन समाजका प्रथम आचार्य एवं एम० ए० निकलते ही उभय-शिक्षणकी असंभवता छात्रोंके मनसे विदा हो गई। इसी समयसे स्व० साह शान्तिप्रसादजी द्वारा स्थापित मूर्तिदेवी छात्रवृत्तियाँ मिलते ही स्याद्वाद महाविद्यालयसे आचार्यके साथ एम० ए०, एस० एस० सी०, इंजीनियरिंग करनेवालोंकी बाढ़ आ गई। यदि इस युगको स्याद्वाद महाविद्यालयका और पंडितजीका स्वर्णयुग कहा जाये, तो समुचित ही होगा। इस अन्तरालमें अनेक छात्रोंने आचार्य, एम० ए०, पी-एच० डी० तो किया ही, बहुतसे उन प्राक-छात्रोंने भी आचार्यके शेष खंडोंको पूर्णकर प्रौढ़ावस्थामें एम० ए० और पी-एच० डी० किया और स्याद्वाद महाविद्यालयके गौरवको बढ़ाया जो परिस्थितिवश अपूर्ण प्राच्य-शिक्षण ही छोड़ कर चले गये थे अथवा जो जैन समाजके अन्य विद्यालयोंका पूर्ण शिक्षण ( न्यायतीर्थ और शास्त्री-मंग्बई ) करके अध्यापनार्थ वाराणसी भेजे गए थे। स्व० पं० सुखलालजी संघवी प्रज्ञाचक्ष इस शतीके चतुर्थ दशकमें काशी विश्वविदयालयके प्राच्य विद्यालयमें जैन दर्शनके व्याख्याता होकर आये थे और विद्यालयसे लगे जैन मन्दिरकी धर्मशालामें रहते थे । उन्हें व्युत्पन्न तथा प्रौढ़ जैन विद्वानोंका समागम इष्ट था क्योंकि वे 'वाचक'के बिना अपना बौद्धिक जीवन चला ही नहीं सकते थे । जैन शास्त्रोंके प्रौढ़ पंडित, प्रभावक वक्ता और निष्पक्ष शोधक पं० कैलाशचन्द्रजी तथा इनके अनगामी क्षयोपशमशाली, प्रभविष्णु और आर्थिकाय उन्निनीषु स्व० पं० महेन्द्रकुमारका समागम प्रज्ञाचक्ष जीके लिए 'खात्पतितरत्नवष्टि'के समान था। उस समय प्रज्ञाचक्षुजीका मत था कि समन्तभद्रादि ही जैन न्यायके आदि प्रतिष्ठापक सर्वोपरि आचार्य हैं। फलतः इन्होंने 'न्यायकुमुदचन्द्र'के सम्पादन तथा प्रकाशन का सुझाव दिया जिसे उक्त दोनों विद्वानोंने स्वीकार किया। इस प्रकार पं० कैलाशचन्द्रजीके सम्पादकत्व रूप की व्यक्ति प्रारंभ हुई। सतत स्वाध्याय, दीर्घचिन्तन एवं निष्पज्ञ दृष्टिके कारण इनकी शोधकता तथा प्रसाद गुण पूर्ण शैलीकी प्रशंसा आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार, डा० उपाध्ये, पं० नाथू राम प्रेमी आदि तत्कालीन प्रमुख शोधकों और सम्पादकोंने भी की थी। यद्यपि शास्त्रीजीने स्याद्वाद महाविद्यालयकी कक्षाओंसे बचे पूरे दिनका सदुपयोग करनेकी दृष्टिसे ही जिनवाणी-सेवा प्रारंभ की थी, तथापि आप उन लोगोंके कृतित्वके भी प्रशंसक रहे हैं, जिन्होंने आजीविका या आय बढ़ाने की दृष्टिसे साहित्य सृजन को अपनाया क्योंकि निदान लोकिक (आयवृद्धि) होनेपर भी वे सतत स्वाध्यायके शुभका बन्ध तो करते ही हैं। पंडितजीकी क्षमतासे प्रेरित होकर भा० दि० जैन संघने भी जयधवलाके प्रकाशन और सम्पादन को अपने कार्यक्रममें लिया। इसी समय वर्णी ग्रन्थमाला व भारतीय ज्ञानपीठकी स्थापना हुई और पंडितजी उनकी प्रवृत्तियोंसे भी संबंधित रहे। स्पष्ट है कि इस अर्द्ध-शतीकी समस्त जैन-प्रवृत्तियोंसे साक्षात या परम्परया पंडितजीका सम्बन्ध रहा है क्योंकि अपने कार्यको करना सबको यथा-शक्ति सहयोग देना और किसीको रुष्ट न करना आपकी प्रकृति है। स्व० पं० राजेन्द्रकुमारजीके शब्दोंमें 'हाजिरमें हुज्जत नहीं, गैर की तलाश नहीं, भाई कैलाशचन्द्रजीकी अपनी असाधारणता है। पडितजी स्याद्वाद महाविद्यालयके जीवनदानी हैं। विद्यालयने ग्यारह वर्षकी वयमें भर्ती करके इन्हें जैन वाङ्मयका ज्ञान दिया और इसके बाद कुछ समय मुरैना तथा कुछ समय अस्वस्थताके कारण घर रहने के बाद १९२७ से आज तकका पूरा समय इन्होंने इस विद्यालयको दिया है। इनका प्राचार्यत्व स्याद्वाद -५३-. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy