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________________ श्रद्धेय पंडितजीकी लेखनीका भक्त तो मैं बचपनसे ही हैं। उनकी प्रवाहपूर्ण सीधी-सरल भाषाका पाठकपर अच्छा प्रभाव पड़ता है । वह कठिनसे कठिन बातको इस तरह लिखते हैं कि वह बालककी भी समझमें आ जाए । उनके व्यंग्य शिष्ट और सपाट होते हैं। कभी-कभी चुभते तो हैं, किन्तु जख्म नहीं करते । उन सरीखे लेखकका पाना जैनसमाजका सौभाग्य है। निरभिमानी व्यक्तित्व महेन्द्र कुमार 'मानव', छतरपुर सन् १९४० को जुलाईमें मैंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालयमें बी० ए ० प्रथम वर्षमें प्रवेश लिया था। निवासकी व्यवस्था स्याद्वाद विद्यालयमें की थी। तब प्रथम बार पं० कैलाशचन्द्रजीके दर्शन करनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था । लेकिन विशेष परिचयमें आनेका अवसर नहीं मिला था क्योंकि १५ दिन बाद ही मैं प्रयाग चला गया था। फिर जब-जब काशी आता रहा तब-तब पण्डितजीके दर्शन करता रहा । पण्डितजीका व्यक्तित्व बड़ा सरल और सौम्य है । कुछ लोगोंके व्यक्तित्व ओढ़े हुए होते हैं, कोई पाण्डित्य ओढ़ लेता है, कोई अफसरियत ओढ़ लेता है, कोई पद ओढ़ लेता है। पण्डितजी पण्डित हैं लेकिन उन्होंने पाण्डित्यको ओढ़ा नहीं है। इसीलिए वे बहुत ही निरभिमानी हैं। पण्डितजीने बहुतसे ग्रन्थ लिखे हैं, बहुतसे ग्रन्थोंका सम्पादन किया है । लेकिन उनकी कीर्तिको अक्षुण्ण बनाए रखनेके लिए उनकी एक ही पुस्तक 'जैनधर्म' काफी है। इस पुस्तकमें पण्डितजीने गागरमें सागर भर दिया है। विशाल जैन वाङ्मयका मन्थन कर उन्होंने इस पुस्तकमें नवनीतको जुटा दिया है। इससे पण्डितजीके गहन अध्ययनका पता चलता है । यदि कोई जैन धर्मका जिज्ञासु हो, तो यह पुस्तक उसकी जिज्ञासाको पूरी कर सकती है। इसी प्रकार उनकी पुस्तक 'जैन साहित्यका इतिहास : पूर्व पीठिका' है। इस पुस्तकको पढ़नेके बाद सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि पण्डितजोने पुस्तकको लिखनेमें कितना परिश्रम किया है। पण्डितजीका प्रवचन सुननेका कई बार अवसर मिला। समाज द्वारा पण्डितजीको जगहजगह प्रवचनके लिए आमन्त्रित किया जाता है। पण्डितजीने खजुराहोके भगवान् शान्तिनाथके मन्दिरके प्रांगणमें प्रवचन किया। उनका प्रवचन हृदय पर इतना प्रभाव छोड़नेवाला था कि लगता था कि यह प्रवचन समाप्त ही न हो। वह प्रवचन हमारे मन, इन्द्रियों और आत्मा-सबको तृप्त कर रहा था । पण्डितजी स्वयं यदि अध्यात्मरसमें डूबे न हों तो दुसरोंको भी उस रसमें डुबा नहीं सकते। यह शक्ति उन्होंने अपनी साधनासे अर्जित की है। उनके प्रवचनकी दूसरी विशेषता यह है कि वह सम्प्रदाय या पक्षसे बँधा नहीं होता। उसे कोई . भी धर्मावलम्बी सुन सकता है और समान आनन्द ले सकता है । पण्डितजी चिरायु हों और मानव समाज की सेवा करते रहें-यही कामना है। -५५ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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