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________________ गाँव पहुँच सके। जंगली स्थान होनेसे मार्ग में हिंसक पशुओं एवं शेरोंका भय बराबर बना रहता था। पिताजीको ३० लंघने हो चुकी थीं। देह टूट चुकी थी। ग्रामीण वैद्य २० मील दूरपर रहते थे। चिकित्साकी समुचित व्यवस्था न पाकर और स्थिति गम्भीर देखकर इन्होंने एक पत्र अपने सहाध्यायी मित्र श्री कैलाशचन्द्र जीको मुरेना विद्यालय के पतेपर पिताजीकी गम्भीर स्थितिका जिक्र करते हुए छोड़ दिया। जब उन्हें इनका पत्र मिला, वे मित्रके संकटसे विचलित हुए। पैसा पास में नहीं था। जटिल समस्या थी । केवल एक अंगूठी सोनेकी अंगुली में थी । अन्ततोगत्वा कोई चारा न देखकर उसीको गिरवी रखकर मित्रकी सहायतार्थ वे मुरेनासे चल पड़े। चूंकि हमारे परिवारसे बाबा श्री गोकुलचन्द्र जी का सम्बन्ध था, अतः वे चलकर सीधे कटनी आये और यहां इन्होंने बावाजीकी बीमारोको सूचना दी। हमारे पर भी उनकी अस्वस्थताका समाचार आया था । पर उस गाँवका पूरा-पूरा पता ठिकाना न मालूम होनेसे हमारे ताऊ व चाचाजी वगैरह कोई सहायता न कर सके । किन्तु कृतसंकल्प पं० श्री कैलाशचन्द्रजी ग्रामका पता लगाते-लगाते सतना स्टेशन से पन्ना रियासतके उस दुर्गम जंगली ग्राम में अनेकानेक कठिनाइयों को पारकर, पद यात्रा तथा घोड़ेकी सहायता से पहुँच गये। जब उनकी पण्डित जगन्मोहनलाल जीसे भेंट हुई तो उनके नेत्र भर आये । गम्भीर वस्तुस्थितिके समय इनके साहस और सायनाने जो कार्य किया, वह किसी महौषधिसे कम नहीं था । शनैः शनैः बाबाजी स्वस्थ हुए। उनका समाज सेवा एवं जिन धर्म प्रचारका कार्य यावत् जीवन चलता रहा । श्री सिद्ध क्षेत्र कुंडलपुर में उनके द्वारा स्थापित श्री महावीर उदासीन आश्रम आज भी वर्तमान है । श्रद्धेय पण्डित जगन्मोहनलालजी आज भी उनके जीवन स्मारक है जो गृह त्यागकर निस्पृह जीवन यापनका व्रत लेकर जैन संसारकी महती सेवा कर रहे हैं। ऐसे महर्षि-सम महामानवको मेरा शत-शत प्रणाम । अनुपम निधि सेठ भागचन्द्र सोनी, अजमेर पण्डितजी समाजकी अनुपम निधि हैं, उनका सम्मान समाजका सम्मान है, जिनवाणीका सम्मान है । वाग्देवी सरस्वतीके महान् उपासक पण्डितजी अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थोंके यशस्वी रचयिता तथा सम्पादक, प्रखर पत्रकार एवं कुशल ओजस्वी उपदेष्टा है। उनकी वाणीमें ओजपूर्ण माधुर्य लेखनीमें तर्कपूर्ण गवेषणात्मक शैली तथा समाजको दिशा देनेकी अद्भुत क्षमता है। पूज्य क्षु० श्री १०५ गणेशप्रसादजी वर्णीके शब्दोंमें 'स्याद्वादके प्राण' पण्डितजी वस्तुतः स्याद्वादके प्राण है। इन्होंने अपनी क्षमतापूर्ण साधनासे श्री स्वाद्वाद महाविद्यालयको विशाल वटवृक्षके रूपमें पल्लवित पुष्पित किया है। उनकी यश-सुरभि आज उनके हजारों शिष्य सर्वत्र बिखेर रहे हैं। दूसरी ओर जैनधर्मके शाश्वत सिद्धान्त स्वाद्वादके वे प्रखर प्रबल उपदेष्टा तथा रचनाकार हैं। स्वाद्वादके प्राणका स्याद्वादके प्रति समर्पण भावनापनीय ही नहीं, अपितु अभिनन्दनीय है पण्डितजीका और मेरा सामाजिक सौहार्द है बल्कि कहना न होगा कि उनका सामाजिक स्नेह अन्तरंगसे है। वे एकाधिक बार अजमेर पधारकर अपनी मृदुवाणीसे अजमेर वासियोंको उपकृत कर चुके हैं। उनका निश्छल अनुराग मेरे स्मृति पटलपर सतत बना रहता है। पण्डितजी चिरायु हों, समाजका चिरकाल तक मार्गदर्शन करें, यही श्रीमज्जिनेन्द्र देवसे प्रार्थना है । Jain Education International - ४६ - For Private & Personal Use Only , www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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