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________________ सन्तुष्ट किया है । जैन संदेशके सम्पादकीयके अग्रलेखोंका अपना अलग महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। बिना किसी पक्षपातके वस्तूतन्वका निर्भीकतासे प्रतिपादन करना उनकी अपनी विशेषता है। मेरे लिये उनकी कृतियों एवं कार्योंकी समीक्षा करना अत्यन्त कठिन है। इनकी जैन जगत् की सेवायें अनुपमेय है। केवल भावी पीढ़ी या इतिहासकार ही उनकी सेवाओंका मूल्यांकन करने में समर्थ हो सकेगा। इतना अवश्य कह सकता हूँ कि आपकी रचनायें आपके सिद्धान्तोंके गहन पाण्डित्यको प्रतीक है। काशीका स्थावाद महाविद्यालय और आपका ब्यक्तित्व एक दूसरेके पूरक बन गये हैं। ४५ वर्षके प्रधानाचार्यत्वके बाद पिछले ७ वर्षोंसे आप अधिष्ठाता पदपर रहकर आज भी विद्यालयकी सेवामें संलग्न हैं। विद्यालयके अतिरिक्त, आप अनेक उपयोगी धार्मिक, सांस्कृतिक कार्यों, शोध एवं परामर्श मण्डलोंमें व्यस्त रहते हैं। आपके कुशल दूरदर्शिता पूर्ण नेतत्व एवं मार्गदर्शनका अनेक संस्थानोंको पूरा-पूरा लाभ मिलता है । साहित्य सृजनमें आपकी विशेष रुचि है। आपका अधिकांश समय लेखन, सम्पादन, अनुवाद व टीका करने में व्यतीत होता है । लेखन कलामें आप जितने सिद्धहस्त हैं, उतना ही आपका वाणीपर अधिकार है । घण्टों अपनी ओजस्वी वाणीसे बड़ेसे बड़े समुदायको सम्बोधित कर आप मंत्र मुग्धकर प्रभावित करते हैं। आप जितने बड़े विद्वान हैं, उतनी ही आपके जीवनमें सादगी है और सरलता है। आडम्बरहीन जीवन ही उन्हें विशेष प्रिय है। निस्पृहता आपमें कूट-कूटकर भरी है। धार्मिक, सामाजिक आयोजनोंमें आप कभी भेंट स्वीकार नहीं करते । निष्काम भावसे धर्म तथा समाज सेवाका निर्वाह प्रारम्भिक जीवनसे ही निरासक्त वृत्तिसे कर रहे हैं । वर्तमानमें यह अप्रतिम अनुकरणीय आदर्श है जिसके दर्शन हमें व्यक्तिमें कदाचित् ही अन्यत्र मिलते हैं । ऐसे संकल्पके धनी व्यक्ति इस भौतिक युगमें विरले हैं। उन्होंने समाजसे लेनेकी अपेक्षा उसे दिया ही दिया है। :-हमारी स्मृति जहाँ तक जाती है, हमें पण्डितजीका स्नेह एवं कृपाभाजन होनेका सौभाग्य प्राप्त है। उनका हमारे परिवारसे सम्पर्क रहा है। हमें ऐसा कोई अवसर याद नहीं जब पण्डित जीने हमारे पारिवारिक, धार्मिक उत्सवों या वैवाहिक मांगलिक प्रसंगोंमें भाग न लिया हो । उनका आशीवर्वादात्मक वरदहस्त सदैव हमारे ऊपर रहा है। वे हमारे परिवारके अभिन्न अंग, अग्रज और कर्णधार रहे हैं । अनेक बार यात्राओंमें उनके साहचर्य एवं सत्संगके लाभसे भी लाभान्वित हुए हैं। ऐसी अनेक रोचक, सरस प्रवासकी स्मृतियाँ हैं जो हमारे स्मृति पटलपर निधि स्वरूप सुरक्षित हैं। उनमें एक ऐसी अविस्मरणीय घटना है जिसका उल्लेख करना अनुचित न होगा। पण्डितजीके विद्यार्थी जीवनकी घटना है। आप आदरणीय पण्डित जगन्मोहनलालजीके सहपाठी थे । पण्डितजीके पिता श्री बाबा गोकुलचन्द्र ब्रह्मचारी धर्म प्रचार हेतु पन्ना स्टेटके अंचलमें बसे ग्रामोंका भ्रमण कर रहे थे। दूर-दूर तक फैले वनों के बीचमें छोटी-छोटी ग्रामीण बस्तियोंमें जैन समाजके परिवार बसते थे। रियासत होनेसे आवागमनके विशेष साधन सुलभ न थे। कभी-कभी रियासतकी डाक सेवा बस आती थी । राज्य कर्मचारियोंकी कृपासे बसमें कभी-कभी कुछ यात्रियोंको यात्राकी सुविधा मिल जाती थी। अधरे बने होनेके कारण बीच में ही यात्रीको मार्गमें छोड़ देती थी । दुर्गम पहाड़ी वन-वीथियोंके द्वारा अभीष्ट स्थानोंमें पहुँचनेके लिये काफी कठिनाईका सामना करना पड़ता था। दैववशात् बाबा मोकुलचन्द्रजी भ्रमण करते-करते एक ग्राममें सख्त बीमार हो गये। पं० जगन्मोहनलालजीको किसी तरह पिताजी की बीमारीकी सूचना मिली। वे जैसे-तैसे कठिनाइयोंका सामना करते हुए पता लगाकर वन्य मार्गोसे उस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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