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________________ विद्यालयके प्राचार्य पदसे अवकाश ले चुके हैं । अब कोई पैसा उन्हें नहीं मिलता। मैंने पूछा कि क्या आप लड़केकी कमाईपर निर्भर हैं ? उन्होंने कहा-नहीं। हमारा बैंकमें इतना पैसा जमा है कि २०० रुपया माहवार ब्याजका आ जाता है। इससे अधिककी हमें आवश्यकता नहीं है। पण्डितर्ज से रमारानी और साह शान्तिप्रसादने एकाधिक बार कहा कि अब, अवकाश-प्राप्तिके बाद, आप 'भारतीय ज्ञानपीठ' सम्भालिए । पण्डित जी ने इन्कार कर दिया। इस सन्दर्भमें उनका स्पष्ट मत है कि मैं अब कहीं नौकरी नहीं करूँगा। मुझे उसकी आवश्यकता नहीं है। पण्डितजी भारतीय ज्ञानपीठकी मूर्तिदेवी ग्रन्थमालाके प्रधान सम्पादक हैं । इस दिशामें उनका सहयोग नितान्त अवैतनिक है। आज, जब भारतीय समाज पैसेकी चकाचौंधमें चौंधियाता जा रहा हो, पण्डितजीकी उसमें कोई आसक्ति नहीं। उनका यह निरासक्त भाव अभिनन्दनीय है। पण्डितजी अपने सभी छात्रों, सम्बन्धियों, विद्वानों, समाजके जान-पहचानके व्यक्तियोंसे प्रेम करते हैं, किन्तु मोह किसोसे नहीं। उसके भीतरका यह मोह-हीन रूप हम लोगोंको सदैव चक्कर में डालता रहा है। किन्तु जहाँ तक मैं समझ सका है, पण्डितजी जैन होते हुए भी जगदगुरु शंकराचार्यकी इन पंक्तियोंका मूल रूपमें अमल करते हैं : का ते कान्ता, कस्ते पुत्रः, संसारोऽयं अतीव विचित्रः । मैं पण्डितजीकी शतायुकी शुभ कामना करता हूँ। जैन संस्कृतिके अग्रदूतके प्रति धन्यकुमार सिंघई, कटनी, म० प्र० आजके पावन प्रसंगपर विश्वविख्यात अंग्रेज साहित्यकारकी एक घटनाका स्मरण आ रहा है। एक समय प्रधान मन्त्री पं० जवाहरलाल नेहरू अपनी लंदन यात्राके अवसरपर आंगल मनीषी जार्ज वर्नाडशासे उनके निवासपर मिलने गये । विशुद्ध शाकाहारकी चर्चाके समय शॉने प्रशंसात्मक शब्दोंमें नेहरूजीस कहा कि आपके भारतमें बहुत अच्छी चीजें है। गाँधी है, आप है, जैन धर्म है। इस कथनसे किस भारतीयका मस्तक गौरवसे ऊँचा नहीं होता। ऐसी है हमारी गरिमापूर्ण अहिंसामयी परम्परा। और उसीके परिवर्धक और प्रसारक हैं हमारे पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्री। अतीत कालमें समय-समय पर असाधारण पाण्डित्य एवं प्रगल्भ प्रतिभासम्पन्न पुरुषोंने हमारे देशमें जन्म लिया है। जैन वाङ्मयकी विभिन्न प्रकारकी रचनाओंसे समयके अनुसार साहित्य सृजनकर उन्होंने जिनवाणी माताका कोष समृद्ध किया है। मेरी मान्यता है कि उसी श्रृंखलामें यदि आचार्य प्रवर युगमनीषी पं० कैलाशचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्रीको रवू, तो मेरी दृष्टिसे कुछ अत्युक्ति नहीं होगी। उनकी असाधारण मेधावी प्रवृत्तियोंने जैन संसार और विश्वको कुछ ऐसी विशिष्ट कोटिकी रचनायें दी हैं जो सहज सम्भव नहीं है। आपकी एक दर्जनसे अधिक मौलिक रचनायें आपके गम्भीर अध्ययन, अनुशीलन एवं अनुभबके प्रमाण हैं । जहाँ विशद ग्रन्थोंके सम्पादन, अनुवाद, टीका आदि की विवेचनाका प्रश्न है, वहाँ इतना ही उल्लेख करना पर्याप्त होगा कि ग्रन्थराज जयधवला जैसे महान आगमग्रन्थकी टीका आपके द्वारा सम्पन्न हो रही है। आपने अनेक ग्रन्थोंकी गवेषणापूर्ण सरल सुबोध टीका कर सर्व सुलभ बनाया है। जैन दर्शनपर खोजपूर्ण निबन्धों एवं सामयिक धार्मिक प्रश्नोंके समाधान स्वरूप अपने सैकड़ों लेखों द्वारा समाजके जिज्ञासुओंको -४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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