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________________ दिया। उनके सम्पादकीय निर्भीकताके प्रतीक होते हैं । वे समाजसे कभी डरे नहीं, जो कहना था, कहां । प्रबुद्ध वर्ग सदैव उनके साथ रहा। समाजके कुछ लोगोंने उनका विरोध भी किया, किन्तु वे दबे नहीं । उनका जीवन सदैव गरिमापूर्ण और शालीन रहा। उन्होंने आवश्यकतासे अधिक पैसेकी कभी आकांक्षा नहीं की। उनके सादा जीवनके अनुरूप जो कुछ उन्हें कभी मिलता था, उसमें सन्तुष्ट थे। मैंने उन्हें कभी किसी सेठ अथवा सेटिठ-पुत्र अथवा राजकीय पुरुषकी खुशामद करते नहीं देखा। वे बिकनेवाले जीव नहीं हैं। यदि ऐसा होता, तो वे अभी तक कभीके खरीदे जा चके होते और फिर उनको लेखनीमें ऐसी निर्भीकता नहीं देखी जाती। उनका “पत्रकार" सदैव सजग और निर्भीक रहा । उनका यह रूप मुझे भाता है। पण्डितजाका जीवन सात्त्विक और धर्ममय है। वे प्रतिदिन सात्त्विक और अल्पभोजन ही करते हैं । एक साधुके भोजनसे उनका आहार कहीं अधिक सादा होता है। सादा शाकाहार ही उनका जीवन है । ऐसा मैंने अनेक बार अपनी आँखोंसे देखा है। रात्रि-भोजनका नितान्त निषेध है। हर परिस्थितिमें निषेध है । भारतीय ज्ञानपीठके एक लाख पुरस्कार समारोहके अवसरपर मुझे उनके साथ, लगभग चार वर्ष, एक साथ रहनेका सौभाग्य मिला है। वे दोपहरका ही भोजन कर पाते थे। शाम तो मीटिंगमें बीत जाती थी। रात्रिको सूखे मेवे और दूध लेकर सो जाते थे। देव दर्शनका ऐसा नियम कि उसके बिना नाश्ता तक नहीं करते । देवदर्शन भी ऐसा-वैसा नहीं कि मत्था टेका और भाग आये, लगभग एक घण्टा । पाँच मिनट बाद, मैं मन्दिरसे बाहर आ जाता और पचपन मिनट पण्डितजीकी प्रतीक्षा करता था। कभी-कभी उनसे अण्टशण्ट बोल जाता, किन्तु वे सदैव मसकराते ही रहते। बात-चीतसे विदित हआ कि आदमी अभ्यासमें जीता है । मन तो कभी-कभी ही रमता है। ___ पण्डित कैलाशचन्द्र एक ऐसे पण्डित हैं, जिनके चेहरे पर कोई मुखौटा नहीं है । आजकी इस दुनियामें असली चेहरा लेकर घूमना कितना मुश्किल है । हर कोई जानता है । एक असमियाँ कविताका सार है, "मेरे चारों तरफ भीड़ है। मैंने हरेकके चेहरे पर नजर डाली, तो असली चेहरा किसीका न मिला । एक दूर खड़े आदमीको मैंने समझा कि उसका चेहरा असली है। मैं उसके पास गया उसके चारों ओर घूमकर देखा तो मालूम पड़ा कि उसके पीछे बड़ी-बड़ी गुफाएँ हैं। मैं फिर आकर अपनी जगह खड़ा हो गया और सोचने लगा कि क्या इन मुखौटा-चढ़े लोगोंके बीचमें असली चेहरा लिये जिन्दा रह सकता हूँ।" किन्तु पण्डितजी जी रहे हैं और यह उनकी बहुत बड़ी जीत है। असलियत को छिपाना वे नहीं जानते, ऐसा उनका निष्कलुष हृदय है। आज के इस पैसा और सेक्सके युगमें मनसे कलुष हटा देना बहुत बड़ी बात है। मन और वाणीकी एकता कभी सम्भव नहीं रही। जो कर पाते थे, साधक कहलाते थे । मैं पण्डितजीको साधक तो नहीं कहता किन्तु उनका इस दिशामें सतत प्रयत्न, एक सद् प्रयत्न तो है ही। इससे उनके मनके पुनीत भाव उजागर होते हैं । पैसा बहुत बड़ी चीज है। उसके बिना जीवन नहीं चलता । जिसने मनुष्यका शरीर पाया है, उसे पैसा जरूर चाहिए। महावीरने दुनियाके लोगोंके लिए पैसेको नगण्य नहीं माना। किन्तु उसके सन्तुलनपर उन्होंने बल दिया। उन्होंने कहा कि जरूरतसे अधिक पैसा संकलित करना पाप है। पाप इसलिए कि वह समाज और व्यक्ति दोनोंके लिए हानिकारक और विपत्तियों का जन्मदाता है। आज पैसेका युग है । महावीरने बहुत बड़ी बात कही थी, किन्तु जैनोंने न उसे प्रचारित किया और न प्रसारित । जब मार्क्स की थीसिस प्रकाशमें आई, तब भी जैन चुप रहे। उस समय उन्हें महावीरके सिद्धान्तोंसे विश्वको वाकिफ करना चाहिए था । इस सम्बन्धमें पण्डितजीसे बात हुई। उन्होंने कहा कि महावीरका यह सिद्धान्त कि "जरूरतसे अधिकका संकलन मत करो", एक सार्वभौम और सार्वकालिक तत्त्व था । पण्डित कैलाशचन्द्रजी स्याद्वाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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