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________________ निःसंकोच यह कहनेको स्थितिमें हूँ कि विषयका प्रौढ़ज्ञान और छात्रोंको सुन्दर रीतिसे उसका प्रदान-इन दोनों कलाओंमें पं० जी सिद्धहस्त है । वे जातिसे वणिक् अवश्य हैं किन्तु ज्ञानपण्यवाले वणिक नहीं। उन्होंने जो कुछ भी अर्थ, संस्थासे प्राप्त किया है, उससे अनेक गुना अर्थ संस्थाको उपार्जित करके दिया है : "सहस्रगुणमुत्स्रष्टुमादत्ते हि रसं रविः ।" इस विद्यालयको एक और महत्त्वपूर्ण विशेषता रही है-राष्ट्रसेवाको भावना पैदा करना। इस विद्यालयके अनेक छात्रोंने १९४२ के राष्ट्रीय स्वातन्त्र्य आन्दोलनमें सक्रिय भाग लिया जिनमें मेरा नाम भी सम्मिलित है । फलस्वरूप मुझे जेल-यात्राके साथ कुछ वर्षों के लिए अध्ययन स्थगित कर देश भ्रमण करना पड़ा। . पं० कैलाशचन्द्र जी अपने जीवनके प्रारम्भसे ही राष्ट्रीय भावनाओंसे ओतप्रोत रहे हैं। वे सदैव शुद्ध खादीके वस्त्र पहिनते हैं। उनके ही सौजन्यसे स्याहाद महाविद्यालयमें राष्ट्रीय भावनाका वातावरण रहा । इसी कारण १९४२ में यह महाविद्यालय राष्ट्रीय स्वातन्त्र्य आन्दोलनके प्रमुख केन्द्रोंमें गिना जाता था। उस समय शहरके सभी मुद्रणालयोंपर शासनने अपना अधिकार कर लिया था किन्तु स्याद्वाद महाविद्यालयने मुलतानी मिट्टीसे बने बिना मूल्यके देशी मुद्रणालयोंमें प्रतिदिन हजारों पर्ची को छपाकर शहरमें राष्ट्रीय आन्दोलनको जागृत रखा । पण्डितजी सदैव ऐसी राष्ट्रीय गतिविधियोंको प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूपसे प्रोत्साहित करते रहते थे। पं० कैलाशचन्द्रजी आदर्श अध्यापक होने के साथ एक सफल साहित्यकार भी हैं। वे भारतीय ज्ञानपीठ, जीवराज ग्रन्थमाला आदि अनेक जैन साहित्य प्रकाशक संस्थाओंके सम्पादक नियामक आदि तो हैं ही, स्वयं भी उन्होंने जो उच्चकोटिका साहित्य निर्माण किया, उसके आधारपर सफल साहित्यकारोंमें उनकी प्रतिष्ठा है। पण्डितजीने अभीतक १२ मौलिक ग्रन्थोंकी रचना तथा १२ ग्रन्थोंके सम्पादन और अनुवादके साथ सहस्राधिक सामाजिक एवं शोधात्मक निबन्ध लिखे हैं । जैन साहित्यके इतिहासपर रचित उनके तीन मौलिक ग्रन्थ उनकी शोध प्रतिभाके निदर्शन हैं। आप जैन विद्वानोंकी नई पीढ़ीके जनक है। जैन विद्वानोंकी समाज-सेवासे विमुखता एवं निरन्तर हो रहे उनके अभावसे पीड़ित होकर पण्डितजीने जैन साहित्यका इतिहास, प्रथम भाग (वर्णी जैन ग्रन्थमाला प्रकाशन) के लेखकके दो शब्दमें लिखा था : "दिगम्बर जैन समाजमें भी चरित्रके प्रति तो आदरभाव है किन्तु ज्ञानके प्रति आदरभाव नहीं है। इसीसे जहाँ दिगम्बर जैन मुनिमार्ग वृद्धिपर है, वहाँ जैन पण्डित धीरे-धीरे समाप्तिकी ओर बढ़ रहे हैं । दिगम्बर जैन मुनिमार्गपर धन खर्च करनेसे तो श्रीमन्तोंको स्वर्ग सुखकी प्राप्तिकी आशा है किन्तु दिगम्बर जैन विद्वानोंके प्रति धन खर्च करनेसे उन्हें इस प्रकारको कोई आशा नहीं है । फलतः निर्ग्रन्थोंके प्रति धनिकों के द्रव्यका प्रवाह प्रवाहित होता है और गृही जैन विद्वानोंको आजकी मंहगाईमें भी पेट भरने लायक द्रव्य भी कोई देना नहीं चाहता। इससे विद्वान तैयार होते हैं और समाजसे विमुख होकर सार्वजनिक क्षेत्र अपना लेते है। वहाँ उन्हें धन, सम्मान-दोनों मिलते हैं।" आदरणोय ५० कैलाशचन्द्रजीका सम्मान कर हम उनमें निहित सरस्वतीके सम्मान द्वारा अपनेको कृतार्थ कर रहे हैं। मैं उन्हें अपनी आदराञ्जलि समर्पित करता है। - ३८ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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