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________________ विद्याव्यसनी एवं कर्मठ व्यक्तित्व राजकुमार जैन, अ० भा० आ० चिकित्सा परिषद्, नई दिल्ली यह एक निविवाद एवं असंदिग्ध तथ्य है कि विद्या-दानके द्वारा पं० कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीने असंख्य छात्रोंका भविष्य निर्माण किया है और उनके अन्धकारावृत पथको ज्ञान-पुंजसे उद्भासित कर उन्हें योग्य, सक्षम एवं विद्वान् बनाया है। पण्डितजीके असंख्य शिष्योंमेंसे मैं भी एक हूँ। उनके असाधारण व्यक्तित्वमें जहाँ मैंने कर्मठता और कर्मशीलताका अनुभव किया है, वहीं मैंने निश्छलता, उदारता और सहज सहृदयताका भी अनुभव किया है। वे एक सरल स्वभावी एवं निस्पृही व्यक्तित्वके धनी हैं। उन्होंने अपनी विशाल शिष्य परम्पराके द्वारा समाजमें जागृतिको मशाल जलाई है जिससे विशाल जन साहित्यका नव-निर्माण एवं पुनरुद्धार भी हुआ है। स्वयं पण्डितजीने भी साधना-रत रहते हुए इस दिशामें जो योगदान किया है, वह उनको सतत क्रियाशीलता एवं विद्याभ्यासकी प्रतिमूर्ति है। पण्डितजीने अपने ज्ञान, गौरव, विलक्षण प्रतिभा एवं साधनापूर्ण जीवनके द्वारा जो अपूर्व आदर्श प्रस्तुत किया है, वह सर्वथा श्लाघनीय एवं अनुकरणीय है। निःसन्देह समाज उनकी सेवाओंसे उपकृत है और ऋणी है । निश्छल एवं कर्मठ व्यक्तित्वके धनी पण्डितजीके प्रति अपनी अभिनन्दनांजलि अर्पित करते हुए मैं उनके सुदीर्घ जीवनकी कामना करता हैं। समाज उनके पथ-प्रदर्शनका लाभ उठाते हुए चिरकालतक अपनी ज्ञानपिपासाको शान्त करता रहे और अपनी साहित्यिक एवं सांस्कृतिक धरोहरकी रक्षा करता रहे, यही मंगल कामना है। एक कर्मयोगी डॉ० सुरेशचन्द्र जैन, रायपुर, (म० प्र०) पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री जैन समाजकी क्या, समूचे विश्वके लिए एक प्रेरणास्रोत हैं। स्याद्वाद महाविद्यालय काशीमें पण्डितजीके चरणोंमें इन पक्तियोंके लेखकको चार वर्ष तक अध्ययनका स्वर्ण अवसर मिला है। इतने लम्बे छात्र जीवनमें पण्डितजीको बहत ही नजदीकसे देखा है। उनका जीवन पूर्ण सादगीसे भरा हुआ है। वे अपनी धुनके तो इतने पक्के हैं कि जिस कार्यको अपने हाथमें लेते हैं, उसको पूरा करके ही चैन लेते है । स्याद्वाद महाविद्यालय, काशीके तो आप प्राण ही माने जाते थे। एक समयका प्रसंग है कि पण्डितजीको अपनी सुपुत्रीकी अस्वस्थताके कारण बाराबंको (उ० प्र०) जाना था । यात्राके लिये बिस्तर वगैरह तैयार था। इसी बीच विद्यालयका जरूरी कार्य आ जानेसे वह बिस्तर बाराबंकी न खुलकर विद्यालयके कार्य हेतु अन्यत्र ही खुला । ऐसे कई प्रसंग है जिनसे आपकी विद्यालयके प्रति अनठी निष्ठा झलकती है। समयके तो इतने पक्के हैं कि उस समय हम छात्र लोग उन्हें विद्यालयमें देखकर अपनी घड़ी मिलाया करते थे। आज जो उच्चकोटिके विद्वानोंकी श्रृंखला दृष्टिगोचर होती है, उसमें प्रायः पण्डितजीकी ही शिष्यमण्डली है । आपकी छत्रछायामें जो भी थोड़ा-सा समय व्यतीत किया, उसने आपके निर्मल चरित्रसे बहत कुछ पाया । वास्तवमें ऐसे विद्वानसे किसी वर्ग सम्प्रदाय या जाति विशेष नहीं, बल्कि सारी मानवता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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