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________________ पण्डितजी और संस्थायें-पण्डितजी दिगम्बर जैन संघ, मथुरा और भारतवर्षीय दि० जैन विद्वत्परिषदके संस्थापकोंमेंसे एक है । आप दो बार विद्वत्परिषद्के अध्यक्ष रह चुके हैं। सोनगढ़ तथा ललितपुर के अधिवेशनमें आपके महत्त्वपूर्ण अध्यक्षीय भाषण हुए हैं। गोपालदासजी बरैया और गणेशप्रसादजी वर्णी शताब्दी समारोह विद्वत्परिषद् की ओरसे मनाये गये, इसमें आपके ही प्रस्ताव मार्गदर्शक रहे हैं । वर्तमानमे आप विद्वत्परिषद्म संरक्षक है तथा सदा मार्गदर्शन करते रहते हैं। आपका मार्गदर्शन विद्वत्परिषद्के संरक्षणमें महत्त्वपूर्ण कार्य करता है। _ विद्यागुरुका अभिनन्दन-विद्वज्जनोंके अभिनन्दनकी परम्परा बहुत प्राचोन है । वीरसेन स्वामीने धवलाके प्रारम्भमें लिखा है कि षटखण्डागमकी रचना होनेपर भदन्त पुष्पदन्त और भूतवलि आचार्यका अभिनन्दन देवोंके द्वारा किया गया था। उसी प्राचीन परम्पराको अब पुनः नवीन रूप दिया जा रहा है। इस परिप्रेक्ष्यमें हजारों विद्याथियोंके जीवननिर्माता पं० कैलाशचन्द्र जीका अभिनन्दन न होना खटकनेवाली बात थी । यह प्रसन्नताकी बात है कि पण्डितजीके ही अनेक शिष्योंने इस कार्यको हाथमें लिया है। इस सन्दर्भ में मैं अपने विद्यागुरु पूज्य पण्डितके प्रति अपनी विनयाञ्जलि समर्पित करता हुआ उनके दीर्घायु होने की कामना करता है और पण्डितजीका निम्नलिखित आर्या द्वारा नमन करता हूँ। सहृदयताकुलभवनं, विद्यापाथोधिमन्दरं परमम् । कृतिपाटवसंपूर्णः नमामि कैलाशचन्द्रं तम् ॥ आदर्श अध्यापक एवं सफल साहित्यकार महामहोपाध्याय डॉ० हरीन्द्रभूषण जैन, उज्जैन पण्डित-वरेण्य सिद्धान्ताचार्य कैलाशचन्द्र शास्त्रीको मैं एक आदर्श अध्यापक एवं शिक्षा शास्त्रीके रूपमें देखता हूँ । उन्होंने एकान्त साधनाके रूपमें पैतालीस वर्षों तक श्री स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसीकी सेवा कर उसका सर्वांगीण अभ्युदय किया है। महाविद्यालयसे सेवानिवृत्त होनेके पश्चात् भी वे आजकल अधिष्ठाताके रूपमें उसकी सेवा कर रहे हैं। गुरुत्वका तात्त्विक निरूपण करते हुये महाकवि कालिदासने मालविकाग्निमित्रमें कहा है कि कुछ व्यक्ति केवल विषयको भलीभांति जानते हैं और कुछ विषयको दूसरोंको सिखानेमें चतुर होते हैं। किन्तु जो व्यक्ति दोनों प्रकारकी कलाओंमें चतुर हों, वही शिक्षक शिरोमणिकी प्रतिष्ठा प्राप्त करने योग्य है : श्लिष्टा क्रिया कस्यचिदात्मसंस्था, संक्रान्तिरन्यस्य विशेषमुक्ता। यस्योभयं साधु स शिक्षकाणां, धुरि प्रतिष्ठापयितव्य एव ।। इसी प्रकार अध्यापकके मौलिक गुणोंकी ओर संकेत करते हुए कालिदास कहते हैं कि जो अध्यापक नौकरी प्राप्त कर लेनेपर शास्त्रार्थसे भागता है, दूसरोंके उंगली उठानेपर भी चुप रहता है और केवल पेट पालने के लिये विद्या पढ़ाता है, ऐसे लोग पण्डित नहीं, ज्ञान बेचनेवाले वणिक है। लब्धास्पदोऽस्मीति विवादभीरोस्तितिक्षमाणस्य परेण निन्दाम । यस्यागमः केवलजीविकाय, तं ज्ञानपण्यं वणिजं बदन्ति ।। कविकुल शिरोमणिने श्रेष्ठ गुरुके जो गुण ऊपर वर्णित किये हैं, वे गुरुवर्य पं० कैलाशचन्द्रजीमें पूर्णतः पाये जाते है। मुझे पं० कैलाशचन्द्रका साक्षात् दशवर्ष तक शिष्य होनेका गौरव प्राप्त है और मैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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