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________________ उपलब्ध रहे होंगे। पर बादमें दो प्राभृत (लिंग और शील प्राभृत ) और उपलब्ध हो गये, फलतः यह अष्टप्राभृत अष्ट पाहुड़ हो गया । इसीलिये अन्तिम दो प्राभृतों पर श्रुतसागरने टीका नहीं लिखी । इस टीकाके पर्याप्त उत्तरवर्ती होनेके कारण यह प्रायः समस्त उपमेयों ओर उपमानोंका समाहार करते हुए लिखो गई है। इसलिये यह हमारे अध्ययनकी दृष्टिसे अत्यन्त उपयोगी है। इन उपमानों और उपमेयोंका उपयोग अन्य अनेक ग्रन्थोंमें भी मिलता है । इस टीकायुक्त अष्ट पाहुड़का हिन्दीमें अनूदित एक संस्करण महावीरजी संस्थानसे प्रकाशित किया गया है। यही संस्करण इस लेखका आधार है। विभिन्न प्रकारके उपमेय धार्मिक तथ्योंके वर्णनमें प्रायः चार दर्जनसे अधिक उपमेयोंका उपयोग होता है। इनका विवरण सारणी १ में दिया गया है। इन उपमेयोंके अन्तर्गत धर्म-कर्म, सम्यक्त्व, ज्ञान, आत्मा और जीव, स मोक्ष, राग, तप, विषय और पाप आदि समाहित होते हैं। सारणीसे यह भी प्रकट है कि कर्म, सम्यक्त्व, ज्ञान, संसार, शरीर, विषय, राग, मुनि और तप जैसे महत्त्वपूर्ण उपमेयोंके लिये अनेक उपमानोंका उपयोग किया गया है। यही नहीं, अनेक उपमेयोंके लिये भी एक ही उपमानका उपयोग किया गया है। उदाहरणार्थ, आत्मा और कर्म-दोनोंका उपमान राजा है । इसी प्रकार धर्म, मोह, संसार, पुनर्जन्म, रत्नत्रयके लिये वृक्षको उपमान बनाया गया है। इससे यह प्रकट होता है कि अनेक उपमेयोंके लिये एक उपमानका उपयोग विशेष विशेष गणोंके महत्त्वको प्रदर्शित करता है। यही नहीं, इस तथ्य को सामान्य ही मानना चाहिये कि प्रत्येक उपमेयके लिये प्रयुक्त उपमानका विशिष्ट गुण ही समीचीन अर्थका द्योतन करता है। उपमानके सभी गण उपमेय पर अनुप्रयुक्त नहीं होते । फिर भी, अनेक उपमानोंके कारण सामान्य भ्रान्ति, द्विविधा तथा विपर्यास होता है । क्योंकि वे तथ्योंके तत्त्वको उतनी सूक्ष्मता तक ग्रहण नहीं करा पाते जितना अभीष्ट है । विविध प्रकारके उपमान सारणी २ में प्रदर्शित अनेक उपमानोंकी सूचीको देखने पर प्रकट होता है कि प्रायः पाँचसे अधिक दर्जन उपमान धार्मिक तत्त्वोंको समझानेके लिए प्रयुक्त किये गये हैं। समग्रतः इन्हें पाँच कोटियोंमें वर्गीकृत किया जाता है। इनमें अनेक उपमान प्राकृतिक वस्तुयं और घटनायें हैं । अनेक उपमान सामान्य वस्तुओंके रूपमें हैं । ग्रह और धातुतत्त्वोंने भी कुछ उपमानोंका रूप लिया है । कुछ उपमान भावात्मक अनुभूतियाँ भी हैं। इन उपमानोंके आधार पर विभिन्न धार्मिक उपमेयोंका विवरण सजाना वास्तवमें एक मनोरंजक बौद्धिक व्यायाम होगा। इन उपमानोंकी विविधतासे एक तथ्य तो स्पष्ट होता ही है कि जैनाचार्य उत्कृष्ट कोटिके प्रकृति निरीक्षक थे। वे अनेक प्रकारको प्राकृतिक घटनाओं एवं वस्तुओंके विशेष विशेष गुणोंका ज्ञान रखते थे। सारणी ३ में इन्हें संक्षेपित किया गया है । इनके माध्यमसे मनोवैज्ञानिक रूपसे आध्यात्मिक तत्त्वोंकी गृढताको सहज बोधगम्य बनानेकी कलामें पारङ्गत थे। इस विवरणमें हम केवल तीन बह-उपमानी उपमेयों पर विचार कर कुछ उपपत्तियाँ प्रस्तुत करेंगे। संसारके उपमान जैन दर्शनमें दो प्रकारके जीव बताये गये हैं-संसारी, दृश्य जगत्के निवासी और मुक्त-अदृश्य लोकके निवासी । संसारी जीवोंके जीवनका चरम लक्ष्य दृश्य लोकको छोड़कर अदृश्य लोकमें पहुँचना बताया गया है। इसीलिये अदृश्य लोकको लक्ष्मी, प्रिया या राजमहलके उपमानोंसे निरूपित किया गया है। निश्चित ही, ये तीनों उपमान सांसारिक जगत्के लिये आकर्षण हैं । ये अतिभ्रम, अर्थोपार्जन एवं प्राकृतिक विशिष्टताओंके कारण प्राप्त होते हैं । संसारी जीवका सामान्य जीवन ही इनके चारों - २०८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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