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________________ ओर घूमता है । इनकी प्राप्ति जीवनमें एक विशेष प्रकार की सार्थकताका आभास करती है । इन्हें पुण्य और पूर्वजन्मका फल बताया जाता है । जब ये वस्तुयें संसारमें ही मिल सकती हैं, तब अदृश्य लोककी क्या आवश्यकता ? इसलिये अदृश्य लोकको संसारसे विलक्षण होना ही चाहिये । यह बताया गया है कि इस लोक चिरस्थायित्व है, जबकि संसार अपने जन्म-मृत्युके कारण क्षणस्थायी है । यद्यपि ये उपमान भी चिरस्थायी नहीं, पर इनके स्थायी रूपसे मिलनेकी कल्पनामें एक विशेष सन्तोष व सुखको अनुभूति सहज ही हो । इसका कारण यह है कि इस जीवनमें इन वस्तुओंसे प्राप्त होनेवाले क्षणिक सुखोंसे हम परिचित हैं । ये हमें सदैव क्रियाशील एवं गतिशील बनाये रखते हैं । फलतः अदृश्य लोक या मुक्तिके इन उपमानोंसे हमें उनके भौतिक अस्थायित्वके गुणकी ओर नहीं, अपितु उनके सौन्दर्य, उनके प्रति अनुरक्ति और उनसे प्राप्त होने वाले सहज एवं महिमामण्डित सुखके गुणकी ओर विशेष ध्यान देना चाहिये । इसलिये मुक्तिकी तुलना में संसारके लिये ऐसे उपमान दिये गये हैं जिनमें सुखानुभूति नहीं होती । इन उपमानोंकी संख्या सात है । संसार संताप है । संताप शब्द सुनते ही दुःखका भान होता है । संसारको समुद्र भी बताया गया है । यह अगाध होता है, गहन होता है और असीम होता है । उसको पार करना कठिन होता है । केवलज्ञानी जन ही इस समुद्रको पार कर सकते हैं । यह उपमान संसारकी असीमता, गहनता और उससे पार होनेकी जटिलताका बोध कराता है । यहाँ समुद्रसे रत्नोंकी प्राप्तिको कोई महत्त्व नहीं दिया गया है क्योंकि यह सुखकर प्रतीतिका मूल है । फलतः समुद्रका नाम सुनते ही जो एक विशेष प्रकारकी अरुचिकर अनुभूति होती है, वह संसारका प्रतीक है। समुद्र में भँवर, तूफान आदि भी उठते हैं । ये भी कष्टकर होते हैं । शान्त समुद्रसे तो एक बार बचा भी जा सकता है पर भँवर व तूफानोंसे निकलना और भी दुष्कर हैं । भँवर और तूफानोंकी विकरालता एवं जटिलताकी कल्पना ही की जा सकती है । भँवरके उपमानसे संसारकी विकरालता प्रकट होती है । संसारके लिये वन, वृक्ष, लता और अङ्कुर उपमानोंका भी उपयोग किया गया है । वस्तुतः ये प्राकृ तिक पदार्थ हैं । इनकी हरियाली एवं नवजीवन देखते ही बनते हैं । बहुतेरे महापुरुषोंने अनेक वनों और वृक्षों को अपने विहारसे पवित्र किया है और उनके तले बोधि प्राप्त की है। वृक्ष और वन संन्यास के आयतन हैं । ये हमारे जीवनके रक्षक हैं । ये हमें बरसात लाते हैं । औषधियाँ, खाद्य और आवास देते हैं । इस प्रकार वन और वृक्ष हमारे लिये पर्याप्त सुखकर अनुभूतिके साधन हैं । सम्भवतः, संसार भी हमें अनेक प्रकार से ऐसी अनुभूति करता है । लेकिन इस अनुभूति के साथ वनमें विकरालता भी होती है । उसमें जङ्गली जानवर, अत्यन्त कटीले वृक्ष और लताएँ होती हैं । इसमें शत्रुओं और डाकुओंकी भी सम्भावना है । एक बार वनमें प्रविष्ट होने पर उससे निकलना बड़ा कठिन होता है क्योंकि वहाँ प्रशस्त पथ नहीं होता । अनेक पगडण्डियाँ होती हैं और मनुष्य भूलभुलैयामें फँस जाता है । वनोंका यह कुरूप ही संसारके उपमानके रूपमें प्रकट किया गया है । बाह्य आकर्षण और किंचित् बाह्य सुखानुभूतिकी कामनासे उसके अन्दर प्रवेश करना एक ऐसे चक्र में फँसना है जहाँ दिशाबोध न हो । वस्तुतः ये प्राकृतिक और सघन वन हैं जहाँ यह स्थिति स्वाभाविक हो सकती है । आजके मानव निर्मित वनोंमें ऐसी स्थिति नहीं होती। लेकिन संसाररूपी वनमें तो कर्मरूपी शत्रु सदैव रहते हैं । इन्हें जीतने के लिये ज्ञान, भावना, क्षमा, ध्यान एवं चरित्ररूपी शस्त्रों का उपयोग करना पड़ता है । संसारको वृक्षकी उपमा भी दी गई । वृक्षकी जड़ें तो सूक्ष्म, अदृश्य और दूर-दूर तक फैली रहती हैं । वे उसकी भीतरी शक्तिकी प्रतीक हैं । वृक्षका तना भी मजबूतीका द्योतक है । वृक्षका ऊपरी रूप उसके विस्तार और शोभाका द्योतक है । इसी प्रकार संसारके आकर्षणकी शक्ति प्रचण्ड होती हैं और उसमें २७ Jain Education International - २०९ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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