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________________ जैन धार्मिक साहित्यमें उपमान और उपमेय ____ डॉ० अमिताभकुमार, खिमलासा, सागर, म० प्र० स्थूल जगत्के पदार्थोके उदाहरणोंके माध्यमसे गम्भीर, गूढ़ या आध्यात्मिक जगत्के तथ्योंको बोधगम्य बनानेकी परम्परा अति प्राचीन है। साहित्य जगत्के लिए यह प्रक्रिया जहाँ साहित्यकारके गम्भीर अनुभव, परीक्षण और चिन्तनका भान कराती है, वहीं यह साहित्यमें रोचकता और लालित्य भी उत्पन्न करती है । इस प्रक्रियाको साहित्यका अलङ्करण माना जाता है । अलङ्कारपूर्ण साहित्यमें कालिदासका नाम अग्रणी माना जाता है, 'उपमा कालिदासस्य'। साहित्यके क्षेत्रमें इस आलङ्कारिकताकी पर्याप्त विवेचना और समीक्षा होती रही है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे भाषा और भावोंका अलङ्करण साहित्यके क्षेत्रमें ही सीमित मान लिया गया हो। वस्तुतः यह तथ्य नहीं है। विभिन्न धर्मग्रन्थोंके अवलोकनसे यह पता चलता है कि उनमें भी अध्यात्मके सिद्धान्तों और तत्त्वोंकी रोचक व्याख्या इसी माध्यमसे की जाती है। सामान्यतः यहाँ गृढ़ सिद्धान्त या तथ्य उपमेय कहा जाता है और जिस उदाहरणसे उसका विवरण समझाया जाता है उसकी तुलना की जाती है, वह उपमान या उपमा कहा जाता है। धार्मिक तत्त्वोंके व्याख्यानमें प्रायः उपमाका ही उपयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त भी अन्य अनेक साहित्यिक अलङ्कार होते हैं पर उनका उपयोग धार्मिक साहित्यमें विरल ही होता है। इस लघु लेखमें मैंने जैनोंके एक प्राचीन धार्मिक ग्रन्थके उपमानउपमेयोंका संक्षिप्त विवरण देनेका प्रयत्न किया है जिसमें यह भी बताया गया है कि विभिन्न उपमानोंके आधारपर उपमेयोंके किन गुणोंका अनुमान लगता है और ये उपमान आध्यात्मिक तत्त्वोंको समझानेके लिये कितने उपयुक्त हैं। धार्मिक साहित्यमें इनके विस्तार व विकासकी प्रक्रियाका अध्ययन और विवेचन एक रोचक अध्ययन क्षेत्र प्रमाणित हो सकता है। धार्मिक ग्रन्थका चयन : अष्ट पाहुड़ जैन ग्रन्थोंमें आचार्य कुन्दकुन्दके ग्रन्थ पर्याप्त प्राचीन माने जाते हैं । ये ईसाकी पहली सदीमें लिखे गये थे। यह कहा जाता है कि उत्तम पद चाहनेवालोंको इन ग्रन्थोंका सूक्ष्म एवं गहन अध्ययन करना ज्य वर्णी जी प्रायः समयसार पर ही प्रवचन करते थे। पिछले कुछ वर्षोंसे समयसारने भिन्नभिन्न मतवादोंको जन्म दिया है और प्रत्यक्षतः समाजके विशृङ्कलित करना प्रारम्भ किया है। यह कितने दुर्भाग्यकी बात है कि जिस ग्रन्थमें आत्माको परमात्मा बनानेकी प्रक्रियाको तत्त्वस्पर्शी निरूपण किया गया हो, वही आत्मधारियों के विशृङ्खलनका कारण बन रहा है। समाजके धर्मगुरुओंको समयसारकी इस व्यथाको दूर करनेका प्रयत्न करना चाहिये। 'समयसार' की इस दयनीय स्थितिके कारण मैंने उसे अपने इस लेखका विषय बनाना उचित नहीं समझा। इसके बदले, उसीके समकक्ष आ० कुन्दकुन्दके एक अन्य ग्रन्थ अष्टपाहड़को मैंने अपने अध्ययनके लिये चुना है। इसका एक महत्त्वपूर्ण कारण यह भी है कि यह अध्यात्मसे सम्बन्धित विभिन्न क्षेत्रोंको समाहित करता है। इसमें निरूपित उपमान-उपमेयोंका विवरण प्रायः सभी धार्मिक एवं आध्यात्मिक मन्तव्योंका समाहरण करता है। सोलहवीं सदीके टीकाकार श्रुतसागर सूरिके समयमें इसके छह प्राभूत ही - २०७ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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