SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपने आपको शरीरादिसे पथक, और कषायादि विकारोंसे भी पृथक, देखने जाननेका प्रयत्न करता है । इसे ही सामान्यतः अनुभव कहा जाता है। इस प्रक्रिया में कभी तो अपनी वर्तमान, कषाय-सम्पक्त, उदयाभिभूत, आत्मपरिणतिको देखकर-"इसमें जिज्ञासा करने वाला, जानने देखने वाला जो तत्त्व है, वही मैं हूँ; ऐसे विधिपरक विकल्पों द्वारा तथा कभी यह उपजने-विनशने वाला शरीर मैं नही हैं। ये रागादि विकारी भाव मेरी परिणति होते हुए भी पर निमित्तजन्य और उत्पन्नध्वंसी होनेके कारण पर ही है, मैं नहीं हूं" ऐसे निषेधपरक विकल्पोंके द्वारा साधक अपनी आत्माका अनुभव करता है। यहाँ मजेकीब इस निचली दशामें साधकका यह अनुभव भी ज्ञानकी उपरोक्त चौथी स्थिति मात्र ही है। शास्त्रोक्त शुद्वात्मानुभूति अथवा स्वानुभूतिके साथ 'अनुभव' की कोई संगति नहीं है। आत्मा-अनात्माका ज्ञान चाहे जितना पुष्कल हो जाये उसके चिन्तनमें नाना विकल्पोंका सहारा लेकर चाहे हम जितना गहरे डूब जायें किन्तु हमारी यह सारी प्रक्रिया जानने, देखने और अनुभव करनेके पर्यायवाची नामोंसे जानी जाने वाली ज्ञानको विकल्पात्मक परिणति ही होगी। परन्तु शुद्धात्मानुभूति विलल्पोंके द्वारा उपलब्ध हो जाय ऐसा कोई उपाय है नहीं। ऐसी 'स्वानुभति' की सही परिभाषा तो तभी घटित होगी जब मन, वचन, काव्यके व्यापारों पर अंकुश लगाकर त्रिगुप्तिपूर्वक तीन कषायोंके झंझावातसे सुरक्षित हमारी ज्ञान-ज्योति नयों और विकल्पोंसे ऊपर उठकर ज्ञानमें प्रतिष्ठित होती हुई निष्कम्प होकर प्रकाशित हो । यह स्थिति अध्यात्म भाषाके अनुसार समस्त क्रियाओंको तिरोहित करके जब हम अकेली ज्ञप्तिक्रियामें संलग्न होंगे तब बनेगी। आगम भाषाके अनुसार तीन कषायोंके अभावमें संज्वलनके मंदोदयके समय त्रिगुप्तिपूर्वक तीनों योगोंकी सम्यक् संयोजना करते हए कषायोंका बुद्धिपूर्वक व्यापार एकदम रोक कर जब हम निर्विकल्प समाधिको उपलब्ध होंगे तब ही हमारी आत्मामें स्वानुभूति प्रत्यक्ष होगी । इस प्रकार, इस स्वानुभूतिका सम्यग्दर्शनके साथ अन्वय-व्यतिरेक पूर्वक अविनाभावी सम्बन्ध नहीं बैठता । सम्यग्दृष्टि जीव स्वानुभूतिसे युक्त और स्वानुभूतिसे रहित भी पाया जा सकता है । स्वानुभूतिकी उपलब्धि होगी, तो सम्यग्दृष्टिको ही, पर यह भी निर्धारित है कि किसी जीवको किसी भी समय अन्तमुहूर्तसे अधिक कालके लिए इसकी उपलब्धि कभी हो नहीं सकेगी। यह स्वानुभूति मोक्षमार्गी जीवको ही होती है । मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रको एकताका नाम है । 'सम्यक् चारित्र' त्यगरूप अवस्था बननेपर वको ही प्राप्त होता है। चौथे गुणस्थानमें क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवको भी सम्यकचारित्रसे रहित ही कहा गया है। वह वहाँ असंयमी ही है। वीतराग भावके बिना शद्धात्मानभतिकी उत्पत्ति असम्भव है। वस्तुमें शक्ति रूपसे विहित भावी पर्यायका, ज्ञानके द्वारा जान लेना अलग बात है, और उस पर्यायके प्रकट हो जानेपर उसका साक्षात्कार करना एक बिलकुल अलग बात है । एक अनगढ़ पाषाणखण्डको देखकर शिल्पी उसमें भगवान की प्रतिमा बनानेकी सम्भावनाओंका आकलन कर लेता है। वह वास्तवमें उस चट्टानमें अपनी कल्पित कलाकृतिका, जिसे उसने अभी गढ़ा नहीं है, दर्शन ही कर लेता है। वह तो यह भी कह सकता है कि प्रतिमा तो इस पाषाणमें है ही, मुझे प्रतिमाका निर्माण नहीं करना है। मुझे तो केवल उस प्रतिमाके अंगप्रत्यंगोंपरसे अनावश्यक पत्थर छीलकर हटा देना है, ताकि आप भी उस मनोहारी छविका दर्शन कर सकें। शिल्पीकी यह बात एक दृष्टिसे ठीक भी है, परन्तु चट्टानके भीतर प्रतिमाके दर्शनकी उसकी यह कल्पना; शिल्पीके ज्ञानका ही ताना-बाना है, अनुभवका नहीं। इसका कारण बहुत आसान है। भूत, भविष्यत् और वर्तमानकी पर्यायोंको जाननेकी क्षमता, ज्ञानमें तो है, अनुभवमें नहीं। अनुभवकी सीमा रेखा तो वर्तमान प्रगट पर्यायके साथ बँधी है। अनगड़ चट्टानके भीतर प्रतिमाकी छविका दर्शन करता हआ भी शिल्पी A A . .. -१७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy