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________________ ४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ भगवानको लक्ष्य करके द्रव्य नहीं चढ़ाता, उसका लक्ष्य तो उस समय प्रतिमाकी ओर ही रहता है । इसलिये दुसरे आक्षेपका भी समाधान ठीक-ठीक नहीं होता है। आक्षेप ३--भगवान क्या हमारे बुलानेसे आते हैं और हमारे विसर्जन करनेपर चले जाते हैं ? यदि हाँ, तो जैन सिद्धान्तसे इसमें जो विरोध आता है उसका क्या परिहार होगा ? यदि नहीं, तो फिर अवतरण व विसर्जन करनेका क्या अभिप्राय है ? आक्षेप ४--आजकल जो प्रतिमायें पायी जाती हैं उनको यदि हम अरहन्त व सिद्ध अवस्थाकी मानते हैं तो इन अवस्थाओंमें अभिषेक करना क्या अनुचित नहीं माना जायगा? यह आक्षेप अभी थोड़े दिन पहले किसी महाशयने जैनमित्रमें भी प्रकट किया है । ये चारों आक्षेप बड़े महत्त्वके हैं, इसलिये यदि इनका समाधान ठीक तरहसे नहीं हो सकता है, तो निश्चित समझना चाहिये कि हमारी द्रव्यपूजा तर्क एवं अनुभवसे गम्य न होनेके कारण उपादेय नहीं हो सकती है। परन्तु उद्देश्यकी सफलताके लिये रत्नत्रयवाद, पदार्थों की व्यवस्थाके लिए निक्षेपवाद तथा उनके ठीक-ठीक ज्ञानके लिए प्रमाणवाद और नयवाद तथा अनेकान्तवाद, सप्तभंगीवाद आदिका तर्क और अनुभवपूर्ण व्यस्थापक जैनधर्म इस विषयमें अधूरा ही रहेगा, यह एक आश्चर्य की बात होगी। इसलिये मेरे विचारसे जैन सिद्धान्तानुसार द्रव्यपूजाका रहस्य होना चाहिये, वह नीचे लिखा जाता है। द्रव्यपूजा निम्नलिखित सात अंगोंमें समाप्त होती है--१ अवतरण, २ स्थापन, ३ सन्निधिकरण, ४ अभिषेक, ५ अष्टक. ६ जयमाला और ७ विसर्जन । शान्तिपाठ व स्तुतिपाठ जयमालाके बाद उसीका एक अंग समझना चाहिये । यद्यपि अभिषेककी क्रिया हमारे यहाँ अवतरणके पहलेकी जाती है। परन्तु यह विधान शास्त्रोक्त नहीं। शास्त्रोंमें सन्निधिकरणके बाद ही चौथे नंबर पर अभिषेककी क्रियाका विधान मिलता है। द्रव्यपूजाके ये सातों अंग हमको तीथकरके गर्भसे लेकर मुक्ति पर्यन्त माहात्म्यके दिग्दर्शन कराने, धार्मिक व्यवस्था कायम रखने व अपना कल्याणमार्ग निश्चित करनेके लिये हैं-ऐसा समझना चाहिये। ___ यह निश्चित बात है कि संसारमें जिसका व्यक्तित्व मान्य होता है वही व्यक्ति लोकोपकार करनेमें समर्थ होता है, उसीका प्रभाव लोगोंके हृदयको परिवर्तित कर सकता है, अतएव तीर्थकरके गर्भ में आनेके पहलेसे उनके विषयमें असाधारण घटनाओंका उल्लेख शास्त्रोंमें पाया जाता है। १५ मास असंख्य रत्नोंकी वृष्टि, जन्म समय पर १००८ बड़े-बड़े कलशों द्वारा अभिषेक आदि क्रियायें उनके आश्चर्यकारी प्रभावकी द्योतक नहीं तो और क्या है ? वर्तमानमें हमलोग भी उनके व्यक्तित्वको समझनेके लिये तथा आचार्यों द्वारा शास्त्रों में गूंथे हुए उनके उपदिष्ट कल्याणमार्गपर विश्वास करने व उसपर चलनेके लिए और "परंप कल्याणमार्गसे विमुख न हो जावे" इसलिए भी साक्षात् तीर्थकरके अभावमें उनको मूर्ति द्वारा उनके जीवनको असाधारण घटनाओं व वास्तविकताओंका चित्रण करनेका प्रयत्न करें, यही द्रव्यपूजाके विधानका अभिप्राय है। हमारा यह प्रयत्न नित्य और नैमित्तिक दो तरहसे हुआ करता है। नैमित्तक प्रयत्नमें तीर्थंकरके पंचकल्याणकोंका बडे समारोहके साथ विस्तारपूर्वक चित्रण किया जाता है तथा प्रतिदिनका हमारा यह प्रयत्न संक्षेपसे आवश्यक क्रियाओमें ही समाप्त हो जाता है । १-हमारी द्रव्यपूजा नित्य प्रयत्नमें शामिल है। इसमें सबसे पहले अवतरणकी क्रिया की जाती है। इस समय पूजक यह समझकर कि तीर्थंकरपर्यायको धारण करनेके सन्मुख विशिष्ट पुण्याधिकारी देव स्वर्गसे अवरोहण करनेवाला है, प्रतिमा तीर्थकरके प्रारूपका दर्शन करता हुआ अपरिमित हर्षसे 'अत्र अक्तर-अवतर' कहता हुआ पुष्प वर्षा करके अवतरण महोत्सव मनावे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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