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________________ ६ / संस्कृति और समाज ३ की यथाशक्ति पूर्ति करना कहा जाता है। जिनेन्द्र भगवान कृतकृत्य है उनकी कोई ऐसी आवश्यकता नहीं, जिसकी पूर्ति हमारे अष्टद्रव्यके अर्पण करनेसे होती हो, इसलिए ऐसा दान निरक ही माना जायगा । समाधान ४ - भगवानके गुण स्मरणमें बाह्य सामग्री से सहायता मिलती है, इसलिये पूजक भगवानको अष्टद्रव्य अर्पण करता है । --- आलोचनाT- गुणस्मरणका अवलम्बन मूर्ति तो है ही तथा स्तोत्रपाठ वगैरह से गुण-स्मरण किया जाता ही है, बाह्य सामग्रीकी उपादेयता इसमें कुछ भी नहीं है बल्कि जब पूजक भगवानके लिये अष्टद्रव्य अर्पण करता है तो द्रव्यपूजा यह उनकी वीतरागताको नष्ट कर उनको सरागी सिद्ध करनेकी ही कोशिश है। समाधान ५ – पूजक भक्तिके आवेशमें यह सब किया करता है, इसका ध्यान इसकी हेयोपादेयता तक पहुँचता ही नहीं और न भक्तिमें यह आवश्यक हो है, इसलिये द्रव्यपूजाके विषयमें किसी तरहके आक्षेपोंका उठाना ही व्यर्थ है । आलोचना - भक्तिमें विवेक जाग्रत रहता है, विवेकशून्य भक्ति हो ही नहीं सकती । जहाँ विवेक नहीं है उसको भक्ति न कहकर मोह ही कहा जायगा, इसलिये यह समाधान भी उचित नहीं माना जा सकता है । 1 इसके पहले कि इस आक्षेपका समाधान किया जाय दूसरे आक्षेपोंपर भी दृष्टि डाल लेना आबश्यक है आक्षेप २ - प्रतिमायें जब भगवानकी स्थापना की जा चुकी है और वह पूजकके सामने है तो फिर अवतरण, स्थापन और सन्निधिकरणकी क्या आवश्यकता रह जाती है ? समाधान - जिनकी प्रतिमा पूजकके सामने है उनकी पूजा करते समय अवतरण, स्थापन और सन्निधिकरण नहीं करना चाहिये, लेकिन जिनकी पूजा उनकी प्रतिमाके अभावमें भी यदि पूजक करना चाहता है तो उनकी अतदाकारस्थापना पुष्पोंमें कर लेना आवश्यक है, इसलिये अवतरण स्थापना और सन्निधिकरणकी क्रिया करनेका विधान बतलाया गया है । आलोचना- एक तो यह कि किन्हीं भी भगवानकी पूजा करते हो, या न हो -- समान रूपसे अवतरण आदि तीनों क्रियायें की जाती है, मानना अनुचित है कि जिनकी प्रतिमा न हो, उनकी पूजा करते समय ही अवतरण आदि क्रियायें करनी चाहिये । समय चाहे उनकी प्रतिमा सामने इसलिये बिना प्रबल आधारके यह पुष्पोंमें अतदाकारस्थापना के लिए दूसरे यह कि जब पूजक भावोंकी स्थिरताके लिए केवल भगवानकी पुष्पोंमें अतदाकारस्थापना करता है, तो इतना अभिप्राय स्थापन और सन्निधिकरणमेंसे किसी एक क्रियासे ही सिद्ध हो सकता है । इन दोनोंमेंसे कोई एक तथा अवतरणकी क्रिया निरर्थक ही मानी जायगी। इस समाधानको माननेसे स्थापन और सन्निधिकरण दोनोंका एक स्थानमें प्रयोग लोक व्यवहारको दृष्टिसे भी अनुचित मालूम पड़ता है। लोकव्यव हारमें जहाँ समानताका व्यवहार है वहाँ तो पहले "आइये बैठिये" कहकर, "यहाँ पासमें बैठिये" ऐसा कहा जा सकता है परन्तु अपने से बड़ोंके प्रति ऐसा व्यवहार कभी नहीं किया जायगा । Jain Education International ---- बहुत से लोग " मम सन्निहितो भव" इस वाक्यका अर्थ करते हैं "हे भगवान मेरे हृदयमें विराजो" । लेकिन यह अर्थ भी ठीक मालूम नहीं पड़ता है, कारण कि एक तो इधर हम पुष्पों में भगवानका आरोप कर रहे हैं और उधर उनको हृदय में स्थान दे रहे हैं ये दोनों बातें विरोधी है। दूसरे पूजक हृदयमें स्थापित For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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