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________________ २४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ कहे, यह मुझे अखर रहा था। युवकोचित उत्साहसे प्रेरित होकर मैं बोलनेके लिए खडा हआ, विद्वानोंकी भरपूर प्रशंसा की साथ में विद्वत्-परिषद् और शास्त्रिपरिषद् जैसी दलबन्दीको समाप्त करनेका सुझाव भी दिया । कुछ विद्वानोंने इसे अपना अपमान समझा । फलस्वरूप मेरे बोलने के बाद ही विद्वान् दो खेमेम बैट गये । कुछ लोगोंने अपनी वाग्मिता द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि हम चाहे भले ही अलग-अलग विचारधाराओं वाले हों किन्तु एक दुसरेके लिए न्यौछावर रहते है। छात्रको बडोंको सीख देनेका अधिकार नहीं है । श्रद्धेय डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री प्रभृति विद्वानोंने मेरी बातका समर्थन किया और कहा कि मेरा कहना विद्वानोंके लिए एक खतरेको घंटी है, जिसे सुनकर विद्वानोंको आपसी मनोमालिन्यका परित्याग करना चाहिए। मेरी बाता रामर्थन पूज्य पण्डित बंशीधरजी, बीनाने भी जोरदार शब्दोंमें किया। इस प्रकार अपने में भी आधे वक्ताओंको बोलता देखकर मेरा भय कम हो गया और कुछ प्रसन्नता भी हई कि मेरे विचारों को आधार बनाकर विद्वानोंमें एक अच्छा मन्थन हो गया । बादमें पूज्य पंडित बंशीधरजीने मेरा परिचय पूछा और उन्हें यह जानकर बहुत खुशी हुई कि मूलतः मेरे पूर्वज भी उसो सोरई ग्रामके निवासी थे जहाँ पण्डितजीका जन्म हुआ है । इस घटनाके बाद अनेक बार पण्डितजीसे भेंट हुई । ये एक आगमनिष्ठ विद्वान् हैं। अपने दैनिक व्यवहार में भी वे सचाई और ईमानदारीका प्रयोग करते हैं । उनकी वाणी सुलझी हुई और शास्त्रोक्त होती है उन्होंने जिनवाणीका अध्ययन, मनन और चिन्तन किया है। रूढ़िवादितासे वे भी दुर है। दिगम्बरत्वके प्रति उनके मनमें अगाध श्रद्धा है। वे अनेक गुणोंके पंज है । मेरे हृदय में उनके प्रति हार्दिक श्रद्धा और बहमान है। पांडित्यके अभिनव हस्ताक्षर .श्री निहालचन्द्र जैन, व्याख्याता, बीना पंडित बंशीधरजी-समयकी शलाकापर लिखा एक ऐसा हस्ताक्षर है, जिसने चौरासी पड़ावोंकी यह जीवन-यात्रा निस्पृह और निलिप्त भावसे समाज व धर्मकी मक सेवा करते हुए तय की। आज भी उम्रकी इस दराजपर पहुँचकर यौवनकी कर्मठता लिए ज्ञानाराधनामें सतत संलग्न एक शिल्पकारकी भाँति साहित्यसृजनमें लगे हुये है । पंडितजीने समयकी चुनौतियोंको स्वीकार कर न केवल उनका करारा उत्तर दिया, अपितु अपने मौलिक चिन्तन और तर्कोसे जैनदर्शनकी गुत्थियोंको खोलने में लगे हैं। प्रायः स्थानसे व्यक्तिका परिचय जुड़ा होता है परन्तु जैन जगत में पं० बंशीधर ब्याकरणाचार्यजीके नामसे बीना नगरका परिचय जड़ा है। पंडितजीका व्यक्तित्व उस कोरी पुस्तकके समान है जिसमें ज्ञानपांडित्य, स्वाभिमान, कर्मक्षेत्रकी ईमानदारी, राष्ट्र सेवा भाव, निर्लोभवृत्ति यश व सम्मान चाहसे दूर आदि जैसे गुणोंके प्रतीक-पृष्ठ हैं और उन पृष्ठोंपर केवल पंडितजीके स्वर्ण हस्ताक्षर अंकित है। पंडितजी मेरे 'पूज्य बब्बा' हैं। क्योंकि सोरई और मड़ावरा पड़ोसी गाँव होनेगे आप मेरे पूज्य पिताश्री से जड़े रहे और जब मैं १९८३ में बीना आया तो पंडितजीने उसी भावसे स्वीकारा. जैसे एक पितामह अपने नातीको देखता है। मैंने न केवल आपके पास बैठकर स्वाध्याय किया, बल्कि पंडितजीके अनुभूत्य उपहारोंसे अपनी झोली भरी। वर्तमान परिप्रेक्ष्यमें पंडितजीको जैसा देखा और जाना उसे कह देना भी प्रासांगिक समझता हूँ। १. आपने अपने ज्ञान और पांडित्यको कभी व्यवसाय नहीं बनाया। २. नैतिकता व ईमानदारीको प्रतिमाकी प्राण प्रतिष्ठा आपने अपने व्यवसाय व कर्मक्षेत्र में की तथा अपने योग्य तीन पत्रोंको भी अपने गुणोंके अनुवतीं बनाया । यही कारण है कि बीना इटावामें आपका वस्त्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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