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________________ ४/ दर्शन और न्याय : ७९ योगदर्शनमें नाना चितशक्तिविशिष्टतत्व, उनका संसार, संसारका कारण, मुक्ति और मुक्तिका कारण इन तत्वोंकी मान्यता रहते हुए भी उसकी पदार्थव्यवस्था करीब-करीब सांख्यदर्शन जैसी ही है। विशेषता इतनी है कि योगदर्शनमें पुरुष और प्रकृतिके संयोग तथा प्रकृतिकी बुद्धि आदि तेईस तत्वरूप होने वाली परिणतिमें सहायक एक शाश्वत ईश्वरतत्वको भी स्वीकार किया गया है और मुक्तिके साधनोंका विस्तृत विवेचन भी योगदर्शनमें किया गया है। सांख्यदर्शनकी पदार्थव्यवस्था योगदर्शनकी तरह वेदान्तदर्शनको भी मान्य है। लेकिन वेदान्तदर्शनमें उक्त पदार्थव्यवस्थाके मूलमें नित्य, व्यापक और एक परब्रह्म नामक तत्वको स्वीकार किया गया है तथा संसारको इसी परब्रह्मका विस्तार स्वीकार किया गया है। इस प्रकार वेदान्तदर्शनमें यद्यपि एक परब्रह्मको ही तत्वरूपसे स्वीकार किया है परन्तु वहाँपर ( वेदान्तदर्शन में ) भी प्रत्येक प्राणीके शरीरमें पृथक्-पृथक् रहने वाले चितशक्तिविशिष्टतत्वोंको उस परब्रह्मके अंशोंके रूपमें स्वीकार करके उनका असत् स्वरूप अविद्याके साथ संयोग, इस संयोगके आधारपर उन चितशक्तिविशिष्टतत्वोंका सुख-दुःख तथा शरीर-संबन्धकी परम्परारूप संसार, इस संसारसे छुटकारा स्वरूप मुक्ति और मुक्तिका कारण ये सब बातें स्वीकार की गयी हैं। वेदान्तदर्शनमें परब्रह्मको सत् और संसारको असत् माननेकी जो दृष्टि है उसका सामञ्जस्य जैनदर्शनकी करणानुयोगदृष्टि ( उपयोगितावाद ) से होता है क्योंकि जैनदर्शनमें भी संसार अथवा शरीरादि जिन पदार्थोंको द्रव्यानुयोग ( वास्तविकतावाद ) की दृष्टिसे सत् स्वीकार किया गया है उन्हींको करणानुयोगकी दृष्टिसे असत् स्वीकार किया गया है। तात्पर्य यह है कि जैनदर्शनमें भी करणानुयोगकी दृष्टिसे एक चित्शक्तिविशिष्ट आत्मतत्वको ही शाश्वत् होनेके कारण सत् स्वीकार किया गया है और शेष संसारके सभी तत्वोंको अशाश्वत. आत्मकल्याणमें अनुपयोगी अथवा बाधक होनेके कारण असत् ( मिथ्या ) स्वीकार किया गया है। इसी प्रकार चितशक्तिविशिष्ट तत्व, उनका पूर्वोक्त संसार और संसारका कारण इन तीन तत्वोंको स्वीकार करने वाले मीमांसादर्शनमें तथा इनके साथ-साथ मुक्ति और मुक्तिके कारण इन दो तत्वोंको मिलाकर पाँच तत्वोंको स्वीकार करने वाले न्याय, वैशेषिक और बौद्ध दर्शनोंमें भी इनका जैनदर्शनकी तरह जो तत्वरूप से व्यवस्थित विवेचन नहीं किया गया है वह इन दर्शनोंके भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणका ही परिणाम है । इस संपूर्ण कथनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि जैनदर्शनकी सप्ततत्वमय पदार्थव्यवस्था यद्यपि उक्त सभी दर्शनोंको स्वीकार्य है परन्तु जहाँ जैनदर्शनमें उपयोगितावादके आधारपर उसका सर्वाङ्गीण और व्यवस्थित ढंगसे विवेचन किया गया है वहाँ दूसरे दर्शनोंमें उसका विवेचन सर्वाङ्गीण और व्यवस्थित ढगसे नहीं किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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